Tuesday, September 27, 2016

लल्ला पुराण 183(फुटनोट 78)

Dheeraj Sharma विद्रोह में ही सर्जनात्मकता है, यदि दादा की पंचांगी दुनिया तथा तंत्र-मंत्र के फरेब से विद्रोह न करता तो लकीर का फकीर बन पोंगापंथी ब्राह्मण बना रहता. दादाजी के मूल्यों से विद्रोह, दादाजी का अपमान नहीं सम्मान था, इतिहास इसी तरह आगे बढ़ता है. हर अगली पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन करती है उसके ग्राह्य सार को संयोजित कर आगे बढ़ती है. इसी क्रम में मानवता पाषाणयुग से साइबर युग तक पहुंची है. वैसे उन्होंने मेरा नाम पागल रख दिया था, लेकिन, पोतों में, मुझे लगता था, मेरे प्रति उनका अतिरिक्त स्नेह रहता था. मन-ही-मन कहीं मेरे विद्रोह का सम्मान भी करते थे. मैंने शुरुआती बचपन के ब्राह्ममुहूर्त बिना समझे, गीता-राम चरित मानस की पंक्तियां दुहराते उनकी गोद में बिताया है. छुट्टियों में घर उनके साथ काफी समय बिताता था. मैं छुट्टियों में चौराहेबाजी करके घर देर से लौटता था. एक बार उन्होंने पूछा था कि मुझे भूत-प्रेत से डर नहीं लगता, मैंने कहा था कि कल्पना से डरने की क्या बात है? जब मैंने कहा कि भगवान भी धर्मभीरुओं के मन में ही रहते हैं, और जो चीज होती ही नहीं उससे क्या डर? उन्होंने प्यार से कहा, तू सचमुच का पागल है. पिता से संबंध-विच्छेद नहीं किया, आर्थिक संबंध विच्छेद किया. मार्क्स ने कहा है अर्थ ही मूल है. पिताजी पैसा देंगे तो विचार भी. किसान पिता बेटे में कलेक्ट्री-डिप्टी कलेक्ट्री का निवेश करना चाहते थे, किंतु मैं पूंजी नहीं था, एक संवेदनशील, चिंतनशील युवा था, जिसने धरती पर एक खूबसूरत कायनात गढ़ने का सपना देखा, जिस सपने को जीवन समर्पित. विचारों से स्वतंत्र होने की पूर्व शर्त है, आर्थिक स्वतंत्रता. अपने बल पर जीने के आत्मविश्वास में गजब की ताकत होती है, असंभव पर निशाना तानने का दुस्साहस आ जाता है.

आप की तीसरी बात, "मुझे लगता हे मानव जीवन बाल्यावास्था, किशोरावास्था, युवावास्था,प्रोढावास्था से वृदावास्था की ओर पहुचता है। अगर बचपन मे माता पिता बच्चो को मिटटी खाने से रोकने के लीऐ मारते या डाटते है,इससे बच्चो का सोषड नही होता बल्की एक सीख मिलती है ।" यदि मां-बाप बच्चे को मिट्टी खाने से रोकने के लिए मारते-डांटते क्यों हैं? बच्चे को मिट्टी खाने का निहितार्थ नहीं मालुम होता, जैसे प्यार और दोस्ती से उन्हें और बातें सिखाई जा सकती हैं, वैसे ही बिना मारे-डांटे मिट्टी खाने का निहितार्थ समझाया जा सकता है. लगभग सभी बच्चे मिट्टी खाते हैं, बच्चों को मारना वैसे ही अमानवीय है कारण जो भी हो. दर-असल अपने बचपन की नास्टेल्जिया की स्टीरियो टाइप सोच के चलते आपको लगता है कि बच्चों को मार-पीट कर ही सुधारा जा सकता है, सोच बदलिए.

आपकी अंतिम बात, "एक बात ओर कहना चाहूगाॅ ,अत्यधिक लाड दूलार बच्चो के जीद्दीपन ओर उद्दंड होने का निश्चीत कारण होता हे।" मैं कहां अत्यधिक लाड़-दुलार की बात कह रहा हूं, उसे तो मैं बच्चों की प्रताड़ना मानता हूं. मैं तो बच्चों के साथ, जनतांत्रिक, पारदर्शी, समतामूलक, समानुभूतिक मित्रता के व्यवहार की हिमायत कर रहा हूं. उन पर अपने सपने न थोपें, उन्हें खुद अपने सपने गढ़ने दें. सादर.

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