बहुत ऊंची हैं उनके जेल की दीवारें
मगर हमारे इरादों से कमतर
माना अभी मझधार में हूं
और इस धुप अंधेरे समय में
तूफान की भयानकता मुसोलिनी सी है
सच पर सड़ अड़ाने की जिद की ताकत
पतवार पर पकड़ ढीली नहीं होने देती
ज़ुल्म से ज़ंग के ज़ज़्बे का दुस्साहस
हवा को पीठ देने नहीं देता
भविष्य की पीढ़ियों की जीवंतता में यकीन
टूटने नहीं देता अंततः सचमुच के सत्यमेव जयते का सपना
होता नहीं साश्वत कोई अंधेरा
भोर की अवश्यंभाव्यता रात से कभी डरने नहीं देती
और वैसे भी डर डर कर जी नहीं जाती ज़िंदगी
खींची जाती है आहिस्ता आहिस्ता मौत की तरफ
(ईमिः 19.05.2015)
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