Saturday, May 30, 2015

सोचा जब लिखने को एक प्रेम कविता

सोचा जब लिखने को एक प्रेम कविता 
लिखने लगा विदागीत  
अनादिकाल से चली आ रही है
मिलने बिछड़ने की रीत 
हमसफर हैं हम मंज़िल-ए-आज़ादी के
मिलेंगे रास्ते कहीं न कहीं
दोस्ती बदस्तूर रहती 
तो कोई और बात थी
रहबरी मंज़िल-ए-आज़ादी भी  कुछ कम नही
इस विदा गीत में  
दुबारा मिलने की गुंज़ाइश
हो जाती है बिल्कुल खत्म नहीं
पुरानी आदतों का छूटना होता है मुशकिल
फिर अतीत तो गर्द नहीं है
उड़ जाये जो एक कविता के झोंके में 
पर पुराने रास्तों पर 
नशे सी बेख्याली में ही वापस जाऊंगा
नहीं रोक पाऊंगा जब  
अपनी विकृतियों तथा उंमादों को
जो चश्मदीद गवाह हैंं
मेरी इंसानियत के
(ईमिः 29.05.2015)

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