651
सलाम
साथी हबीब जालिब
पिछली
सदी के मीर-ओ-ग़ालिब
पेश की
जो बेइजाज़त लिखने की मिशाल
हो गया
तारीख के ज़ालिमों का बुरा हाल
डाल लेते
हैं जो मुशाहिदी की आदत
भूल ही
जाते हैं लिखना हर्फ-ए-सदाकत
नहीं है
इन नाइंसानों अपनी अदावत
फहराते
रहेंगे सदा परचम-ए-बगावत
ताकत है
हमारी आपके नक्श-ए-कदम
नहीं
डरेंगे कभी सत्ता के हथियारो हम
होती है
जब भी ज़ुल्म से लड़ने की दरकार
सुनाई
देता ज़ुल्मत को ज़िया कहने से इंकार
जब भी
सुनाई देता है निजामों का युद्धोंमाद
सच दिखती
खतरा-ए-निज़ाम-ए-जर की बात
जंगखोर
फैलाता युद्धोंमाद का पैगाम
बरकरार
रहे ताकि हरामखोरों का निज़ाम
अमन-ओ-चैन
का पैगाम देगा जब आवाम
बंद हो
जायेगी जंगखोरों की दुकान
होंगे
हिंदुस्तान-ओ-पाकिस्तान तब दोनों हमारे
उखड़
जायेंगे दोनों मुल्कों से जब अमरीकी डेरे सारे
सारी
जमीनें होंगी आवाम की
उखड़
जायेंगी जड़े ज़र के निज़ाम की
न होगा
कोई हिंदू न मुसलमान
बसेंगे
तब यहां निखालिस इंसान
दिखेगा
आफताब तब निखालिस आफताब सा
न कि
मुल्ले के अमामा या बनिये के किताब सा
लिखते
रहेंगे तराने जंग-ए-आज़ादी के लगातार
कर ले
ज़ाल्म चाहे ज़ुल्म की सारी हदें पार
जब भी
होगी मेरा कलम तोड़ने की बात
और भी
बुलंद जायेगी इसकी आवाज़
बा-इज़ाजत
करना चाहे वो जो मेरी ज़ुबान
ज़ज़्बात-ए-बगावत
भरेंगे और ऊंची उड़ान
आता है
जब भी दमन का संकट भारी
बनती है
संबल आपकी शायरी हमारी
“होते हैं तो हो लें हाथ कलम, शायर न बनेगा दरबारी“
किया एक
तानाशाह ने सुपुर्द-ए-ज़िंदान
रोक न
सका वो कलम की ऊंची उड़ान
याद है
फ़नकारों के नाम आपका पैगाम
ज़ुल्मत
पर न करेंगे कभी फ़न कुर्बान
करूंगे
निज़ाम-ए-ज़र पर वार लगातार
पहुंच
जायें थाने क्यों न सारे ज़रदार
नहीं
लिखूंगा शिना कभी इबलीसनुमा इंसानों की
पढूंगा
कसदे महकूमों मज़लूमों खाकनशीनों की
चलता
रहूंगा आपके कंटीले नक्श-ए-कदम पर
होलें
चाहे हाथ क़लम बिकेगा नहीं ज़मीर मगर
(हबीब
जालिब से थोड़ी-बहुत चोरी के साथ)
(ईमिः
14. 04.2015)
652
जी हां, ऐसा भी दिन आयेगा
जब सच की
तूती बोलेगी औ झूठ लताड़ा जायेगा
जब भेद
खुलेगा मक्कारों का औ ज़िंदानों को तोड़ा जायेगा
जब भूत
भगेगा भगवा का औ फरेब सामने अायेगा
जब
राष्ट्रवाद का नकाब हटेगा औ प्रपंच नंगा हो जायेगा
जब
बेपर्दा होगा हत्यारा औ गद्दी से गिराया जायेगा
जब जाग
उठेगी धरती औ गुलनार तराने गायेगा
जब होगें
पढ़े-लिखे नुमाइंद औ ज़ाहिल न कनाडा जायेगा
जब खत्म
होगी गिनती गद्दी की औ 3 को 42 न कोई बतलायेगा
जब होगी
न ज़रखरीद जमीन औ दहकानों को पूजा जायेगा
जब होगी
खैर न ज़रदारों की औ मेहनतश जश्न मनायेगा
जब होगी
नहीं गुलामी ज़र की औ आज़ादी का तराना गया जायेगा
जब धरती
झूम के उट्ठेगी औ अंबर लाल-लाल लहरायेगा
हां ऐसा
दिन तब आयेगा औ इंकिलाब कहलायेगा
तब होगा
खाक़नशीं न कोई औ धन्नासेठ न कोई रह जायेगा
तब धरती
पर होगा अमन-चैन औ जंग न कहर बरपायेगा
जी हां
ऐसा दिन इक दिन आयेगा औ समाजवाद कहलायेगा
तब न भूखा
कोई सोयेगा औ ऐश न कोई मनायेगा
तब
ज़ालिम ज़िंदानों में होगा औ मेहनत की रो़टी खायेगा
तब होगा
न कोई हिंदू-मुस्लिम औ हर कोई इंसां कहलायेगा
वह दिन
हमीं से आयेगा तब ताज़ एक गाली बन रह जायेगा
न
जात-पांत का बंधन होगा औ मर्दवाद मिट जायेगा
वो दिन
अवश्य ही येगा औ मेहनतकश उसको लायेगा
तब सच की
तूती बोलेगी औ झूठ लताड़ा जायेगा.
ऐसा दिन
इक दिन आयेगा.
(ईमिः 18.04.2015)
653
कयामत इक
मजहबी शगूफा है
इंकिलाब
इतिहास का अगला पड़ाव
मजहब
सिखाता बंददिमाग अास्था
इंकिलाब
सिखाता करना सवाल हर बात पर
साधता है
चुप्पी मजहब बिगड़े इहलोक पर
देता
उहलोक बनाने के उपदेश
इंकिलाब
करता पर्दाफास उहलोक के फरेब का
देता
इहलोक के बेहतरी का वास्ता
(ईमिः19.04.2015)
654
उसने कहा
अच्छे दिन आ रहे हैं
वे मुल्क
में विदेशी पूंजी ला रहे हैं
करेंगा
कॉरपोरेट बेदखल जब किसान
है जो अब
तक खेती की झंझटों से परेशान
बनाकर
मजदूर बढ़ायेगा उनकी शान
हो खुशी
से पागल पेड़ से लटकेगा किसान
तब जाकर
बनेगा राष्ट्र महान
राष्ट्र
पर विश्वबैंक का एहसान
कर्ज़ से
जिसके बन रहा देश महान
चाहता
नहीं वह चमक-दमक पर दिहाती के धब्बों का निशान
कर दिया
उसने चालिस फीसदी गांवों के शहरी करण का फरमान
अच्छे
दिन के लिये महमहामहिम ने लिया उसको मान
कानूनन
होगा अब बेदखल किसान
मिलेगा
उसको खानाबदोशी का सम्मान
हो खुशी
से पागल पेड़ से लटकेगा किसान
तब जाकर
बनेगा राष्ट्र महान
(ईमिः23-25.04.2015)
655
जब भी
होता है रिश्तों में मिल्कियत का भाव
आ ही
जाता है उनमें थोड़ा बहुत दुराव
आज़ाद-खयाली
है मानव का कुदरती स्वभाव
मौत से
पहले होता नहीं ज़िंदगी का आखिरी पड़ाव
रिश्ते
हों अगर स्वामित्वबोध से आज़ाद
फलती-फूलती
आशिकी होती आबाद
प्यार-मुहब्बत
ज़िंदाबाद.
(ईमिः25.04.2015
656
क्या
सोचकर तुम मेरा कलम तोड़ रहे हो,
इस तरह तो कुछ
और निखर जायेगी आवाज़़*
बोलते
हैं तो बोलते रहें लोग बा-इज़ाजत
अपना तो बे-इज़ाज़त है बोलने का मिज़ाज
बोलेगा न
ग़र शिक्षक नाइंसाफ़ी के खिलाफ़,
पैदा
होगा मुल्क में एक भयभीत समाज
कल को
करेगा कलंकित शिक्षक
लगने
देगा आज़ादी-ए-ज़ुबां पर ताले ग़र आज
शिक्षक
का काम है एक भयमुक्त समाज बनाना
छात्रों
को नाइंसाफी से लड़ना सिखाना
इतिहास
समझने का साहस उनमें भरना
विवेकशील
होने की उनकी हिम्मत जगाना
उनको
निर्भीक जीवन का सुख समझाना
समानता
की नई संस्कृति निर्माण करना
पढ़ाना
नहीं है श्रीश्री के प्रवचन का कमाल
पढ़ाता
है शिक्षक पेश कर प्रत्यक्ष मिशाल
नहीं है
उसके पास कोई और विकल्प
लेना ही
है उसको जंग-ए-आज़ादी का संकल्प
मिलता
नहीं किसी को कुछ भी कभी खैरात में
लड़ना
पड़ता है हक़ के एक-एक इंच के लिए
रहती है
महफ़ूज़ सुरक्षा संघर्षों की एकता में
न कि
ईयमआई के ख़ौफ या सत्ता-लोलुपता में
जरूरी है
शिक्षक का उठाना अभिव्यक्ति का जोखिम
वरना
करार देंगीं अगली पीढ़ियां उसे इतिहास का मुल्जिम
समझेगा
जिस दिन शिक्षक शिक्षक होने की महत्ता
खत्म कर
देगा धरती से ज़ुल्म-ओ-ज़ालिम की सत्ता
(ऐसे ही. ईमिः 26.04.2015)
* यह पंक्ति बहुत साल पहले किसी से सुना था)
657
वक़्त से
पीछे चलता पोंगापंथी
साज़िश
रचता है भविष्य कि विरुद्ध
करके
स्थापित महानताएंं किसी कल्पित अतीत में
करता
नीलाम मुल्क पहनकर राष्ट्प्रेम का मुकुट
क़ाफिर
करार देता है उस हर उस दानिशमंद को
करता जो
सवाल इतिहास के इस घृणित बलात्कार पर
जारी कर
देता है फतवा बन इस या उस खुदा का दलाल
मगर
इतिहास गवाह है
जब भी
सत्य के तर्क पर भारी पड़ा है पोंगापंथी बहुमत का कुतर्क
हो जाता
है उस समाज का निश्चित बेड़ा गर्क
हुआ था
ऐसा ही कुछ प्राचीन यूनान में
दब गया
था सुकराती तर्क कुतर्क के बहुमत के शोर में
सुकरात
ने पिया सत्य के लिये गरल
और बना
दिया आने वाली पीढ़ियों के लिये सत्य का संकल्प सरल
सुकरात
को तो मार डाला उंमादी एथेंस ने
पर बच न
सका सिकंदरी युद्धोंमाद से
गैलेलियो
भी वक्त से आगे थे सुकरात की तरह
धर्मोंमाद
ने मार दिया उन्हें भी
नहीं जान
पाता पोंगापंथ इतिहास की हक़ीक़त
बढ़ जाती
है शहादत से विचारक की ताकत
नासमझों
का हुजूम, भेड़ सा
चलता है वक़्त के साथ
न आगे न
पीछे
मान कर
नियति मौजूदा हालात को
बिताता
है ज़िंदगी निजांम की जर्जर मशीन के पुर्जों की तरह
बन जाता
है अनजान प्रतिधरोक प्रगति का
ओढ़कर
विकल्पहीनता की चादर
ये न
व्यवस्था के साथ होते हैं न खिलाफ
ढोते हैं
अपना ही बेवज़ूदी का अपना वजूद
दौड़ते
हैं रथ के पीछे
सोचते
हैं रथ इन्ही के सहारे चल रहा है
इन्हें
कभी कभी कहीं कहीं मध्यवर्ग कहा जाता है
सेवक हैं
सत्ता के पालते हैं शासक होने का मुगालता
ये गोरख
के "समझदारों का गीत" के नायक होते हैं
जो चाय
के प्याले में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
चुप्पी
का मतलब समझते हैं
और
आज़ादी के खतरों से बाल-बाल बचत जाते हैं
इतराते
हैं ग़ालिब के शह के मुसाहिदों की तरह
खुद को
समझते हैं लीडर अजीमुस्सान
हबीब
जालिब के फिरंगी के दरबान की तरह
जैसे ही
चलती है बात लहूलुहान नज़ारों की
दूर जाकर
बैठते हैं दुष्यंत के शरीफ लोगों की तरह
इन्हें
वे लोग लंपट बुर्ज़ुआ कहते हैं
जो खुद
को वक़्त से आगे मानते हैं
वक्त से
आगे रहता है युगद्रष्टा
देखता है
सपने एक नई दुनियां के
जहां
मेहनत की लूट न हो हरामखोरी की छूट न हो
जानता है
यह वैज्ञानिक सत्य
कि जिंदा
कौमें कभी विकल्पहीन नहीं होती
विकल्हीनता
मुर्दा कौमों की निशानी है
बनाता है
नक्शा एक सुंदर विकल्प का
होता है
जिसमें शोषण मुक्त दनिया का वैकल्पित निजाम
वे लोग
चिल्लाते हैं यूटोपिया यूटोपिया
जानते
नहीं जो नियम इतिहास के गतिविज्ञान का
मिलता
नहीं अंजाम जब तक किसी बात को
लोग उसे
हवाई महल या यूटोपिया कहते हैं
1917 के
अक्टूबर तक सोच नहीं सकता था कोई
बात उन 10 दिनों की हिल गई थी दुनिया
जिससे
यूटोपिया
थी मजदूर क्रांति की बात तब तक
यूटोपिया
थी यह बात 1950 के दशक
में
कि कोई
अश्वेत बन सकता है अमेरिकी राष्ट्रपति
उतार
दिया गया था जब बस से रोज़ा पार्क को
गोरे को
सीट न देने के लिये
नायिका
बनी जो नागरिक अधिकार दोलन की
यूटोपिया
होता यह ख्याल उस समय
कि दफनाई
जायेगी वह जॉर्ज वाशिंगटन की कब्र की बगल में
यूटोपिया
होता कहना हमारे बचपन में
हुक्मरान
होना एक दलित महिला का
और उसके
चरणचुंबन करते उन लोगों की बात
जो पैदा
हुये थे ब्रह्मा के शरीर के श्रेष्ठ अंगों से ने
यूटोपिया
लगती है सच की तूती की बात
क्योंकि
हम इतिहास के उस अंधे मोड़ पर हैं
जब झूठ
का कुतर्क सच के तर्क पर पर 20
पड़ता दिख रहा है
मगर
जानता है वह इतिहास का यह वैज्ञानिक सत्य भी
कुछ भी
स्थाई नहीं होता परिवर्तन के सिवा
और है जो
भी अस्तित्ववान निश्चित है अंत उसका
अपवाद
नहीं है झूठ का निज़ाम भी
आयेगा ही
वह वक़्त
जब
ज़ुल्म के माते लब खोलेंगे
मान
मशविरा फैज़ का जब उट्ठ बैठेगा खाकनशीं
तब तख्त
गिराये जायेंगे और जलेगी ताजों की होली
जब
जागेगा मज़दूर किसान
लायेगा
ही नया विहान
तब सच की
तूती बलेगी औ झूठ लताड़ा जायेगा
साम्राज्यवाद का मर्शिया पढ़ा जायेगा
सपना
हक़ीकत बन जायेगा
यूटोपिया
सच हो जायेगा
है जो
वक़्त से आगे
वही युग
पुरुष कहलायेगा
(ईमिः27.04.2015)
658
पल रहे
थे मेरे अंदर मंदिर की शह पर
सदियों
पुराने जो संस्कार
बोझ
से सर पर पूर्वजों की लाशों के
बोझ तो
फिर बोझ ही होता है
उतार
देना चाहिये जल्दी-से जल्दी
मैंने तो
जला दिया था विरासत में मिले संस्कारों को
तीन
धागों के जनेऊ के साथ
सनद थी
जो मेरी जीववैज्ञानिक संयोग के पहचान की
जाति
छोड़ कुजात हुआ
जाति
बिना वैदिक धर्म कहां
तलाश-ए-इल्म
में पकड़ी जब सुकराती राह
करता रहा
सवाल-दर-सवाल और तलाश-ए-जवाब
मिला
नहीं जब जवाब खुदा की खुदाई का
हो गया
मुक्त भय से भूत और भगवान के
महसूस
किया सुख नास्तिकता के साहस का
संस्कारों
के बोझ तले जिंदगी खींचते अभागे
सहानुभूति
के पात्र हैं, कोप के
नहीं
(ईमिः 29.04.2015)
659
थे जो
अपने राज़दां
दुश्मन
के मुखबिर बन गये
खायी थी
कसम जिसने जंग-ए-आज़ादी की
मिलते ही
मौका शह के मुशाहिद बन गये
निकले थे
करने जो इंक़िलाब
वित्तपोषित
(यनजीओ) सुधारक बन गये
दम भरते
थे जो जनचेतना के जनवादीकरण का
सेल्फहेल्प
ग्रुप में मशगूल हो गये
थे जो
विस्थापन-विरोधी नेता
विश्वबैंकी
विकास के मुर्शीद बन गये
जिनका
काम था घरों की मरम्मत
बस्तियां
उजाड़ने की मशीन बन गये
मुदर्रिस
का काम था जगाना ज़मीर
वे ईयमआई
के आतंक से ख़ुद बेज़मीर हो गये
की
जिन्होंने विज्ञान की पढ़ाई
वे
अंधविश्वास के शिकार हो गये
क्या
वक़्त आ गया है दोस्तों
कि
दानिशमंद लक्ष्मी के पुजारी बन गये
वसुधैव
कुटुम्बकम् का आया जो जमाना
लोग क्या
से क्या बन गये.
(ईमिः29.04.2015)
660 (अ)
सच कहती
हो सिर्फ मांस नहीं हो तुम
यद्यपि
जन्म से ही तुम्हे यही बताया गया है
उसी
सार्वभौमिक झूठ की तरह
कि किसी
ईश्वर ने दुनिया बनाया है
या
जनतंत्र थैलीशाहों का नहीं जनता का शासन है
तुम
सिर्फ मांस नहीं बल्कि एक मुकम्मल इंसान हो
शस्त्र
उठाओ प्रज्ञा का
बेपर्दा
कर दो इस मुकम्मल मर्दवादी झूठ को
ध्वस्त
करके मर्दवाद का वैचारिक दुर्ग
प्रतिवर्चस्व
के लिये नहीं
मानवमुक्ति
के लिये
(ईमिः 04.07.2015)
660(ब)
बताया तो
हमें यह भी गया था कि
मां ममता
के साथ त्याग की भी मूर्ति होती है
और मान
लिया था यह बात देखकर दादी-ओ-मां के अाचरण
लेकिन
समझ नहीं आती थी यह बात
बिना कुछ
खास किये क्यों दुखता है बाबू जी का ही पांव
और भोर
से ही जाता-चक्की से शुरू दौड़-भाग के बावजूद
बची रहती
थी मां में ऊर्जा बाबू जी का पैर दबाने की
मां भी
तो कभी थकती होगी ऐसा मैं सोचता था
लेकिन
बाबूजी को नहीं देखा कभी मां का पैर दबाते हुये
और भी
बहुत कुछ बताया गया था
जो भी
जैसे जैसे असंगत लगने लगीं
बिसराता
गया विरसे की हिदायतें
कभी एक
एक करके तो कभी एक साथ
मुझे
नष्ट कर पाते विरासत के संस्कार
उससे
पहले ही नष्ट कर दिया मैंने उन्हें ही
(ईमिः 04.05.2015)
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