मैं अपनी मां की बेटी हूं
नहीं परिंदा बेपर
न ही पराया धन
उड़ती हूं गगन में रमता जहां मेरा मन
बंद कर दिया जाना किसी पराये घर
बनाती हूं बसेरा अपनाी मेहनत की ईंट गारे से
झुक जाती ऊपर उठती उंगलियां
मेरी आंख के इक हल्के से इशारे से
देती नहीं बाप को वर खोजने की चिंता
मिल जाता है हमसफर सफर-ए-जिंदगी की राह में
होते दोनों इक दूजे की सख्सियत चाह में
चलते हैं साथ रहते जब तक हममंजिल
अलविदा कर पकड़ते अपनी अलग राहें
अलहदा हो जायें ग़र मंजिल-ए-दिल
दर-असल सारे रिश्ते ही हमसफरी ही हैं
तय करते हैं साथ साथ कुछ दूरियां
मिलते हैं दुबारा ऐतिहासिक संयोग से
साथ रहती हैं मगर यादें हमसफरी की
इस ज़िदगी की आख़िरी सांस तक
जी मैं पंख वाला परिंदा हूं
किसी की खेती नहीं
अपनी मां की बेटी हूं
(ईमिः20.05.2015)
No comments:
Post a Comment