बुर्के की स्वेच्छा की बात गुलामी के अधिकार जैसा लगता है. गुलामी अधिकार नहीं हो सकती. रूसो ने लगभग 250 साल लिखा, "No one shall be allowed to disobey the general will, in other words, everyone shall be forced to be free". 2 वाक्यों मे कमेंट लिखने की सोचा लेकिन बड़ा होने का खतरा लग रहा है. ग्राम्सी का वर्चस्व का सिद्धांत पढ़ना चाहिये इन लोगों को. को समान रूप से प्रभावित करती है. बाप रे, वक्त कितना तेज भागता है. 25 साल पुरानी बात हो गयी. महिलाओं की स्थिति तथा कानून पर सेमिनार था. नारी सशक्तीकरण का प्रोजेक्ट में सक्रिय 2 नामी नारीवादियों ने समुदाय में काम करने के अनुभव के हवाले से इस स्वेच्छा की हिमायत कर कहीं थी. मैंने फौरी प्रतिक्रिया में कह दिया था कि आइये तब हम उनके गुलामी के अधिकार के लिये लड़ें. मेरी इस बात से कई लोग नाराज हो गये थे. सांस्कृतिक भवन की बुनियाद गहरी है, भवन में दरारें पड़ रही हैं, इन दरारों को चौड़ा करते हुये अौर दरारें पैदा करनी हैं. पैदा होते ही लड़कियां स्वेच्छा से बेड़ियों को आभूषण मान लेती हैं. सत्ता के सारे विचारधारात्मक-सांस्कृतिक औजारों के सब प्रतिरोधों के बावजूद, आज़ादी शब्द के जादू के असर से वे कब तक बचेंगीं. पादेब को आभूषण मानने से इंकार करने वाली लड़कियों की तादाद बढ़ रही है. कॉलेज तो आने दो, बुर्का खुद-ब-खुद गायब हो जायेगा. जर्जर हो रहा हजारों साल पुराना मर्यदवाद का यह सांस्कृतिक वन ध्वस्त होने की कगार पर है, लगातार चोट करते रहो. सारे ही धर्म मर्दवादी हैं.मैंने तो शादी के वक्त पत्नी की शकल ही नहीं देखा था, दही-गुड़ भी घूंघट को ही खिलाया था. शादी के तीसरे साल में गौना आने पर लालटेन की रौशनी में पहली बार उनका दीदार किया. ये अब क्रमशः43 तथा 40 साल पुरानी बाते हुईं. तब से बात बहुत आगे बढ़ चुकी है. नारीवादी प्रज्ञा तथा दावेदारी का रथ लंबी दूरी तय कर चुका है, मुक्ति की मंजिल अभी दूर है, पड़ाव-दर-पड़ाव बढ़ते रहना है. आपकी (नीलिमादि की) और उससे छोटी लड़कियों को कहता हूं कि बेटी तुम लोग भाग्यशाली हो कि 1-2 पीढ़ी बाद पैदा हुई.लेकिन तुम्हारे अधिकार-अाज़ादी खैरात में नहीं मिली है. पिछली पीढ़ियों के निरंतर संघर्ष का नतीजा है. पैदा होते ही पिलाई जाने वाली घुट्टियों का दूरगामी असर रहता है.
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