Wednesday, May 13, 2015

क्षणिकाएं 45 (661-70)

661
बताया तो हमें यह भी गया था कि
मां ममता के साथ त्याग की भी मूर्ति होती है
और मान लिया था यह बात देखकर दादी-ओ-मां के अाचरण
लेकिन समझ नहीं आती थी यह बात
बिना कुछ खास किये क्यों दुखता है बाबू जी का ही पांव
और भोर से ही जाता-चक्की से शुरू दौड़-भाग के बावजूद
बची रहती थी मां में ऊर्जा बाबू जी का पैर दबाने की
मां भी तो कभी थकती होगी ऐसा मैं सोचता था
लेकिन बाबूजी को नहीं देखा कभी मां का पैर दबाते हुये
और भी बहुत कुछ बताया गया था
जो भी जैसे जैसे असंगत लगने लगीं
बिसराता गया विरसे की हिदायतें
कभी एक एक करके तो कभी एक साथ
मुझे नष्ट कर पाते विरासत के संस्कार
उससे पहले ही नष्ट कर दिया मैंने उन्हें ही
(ईमिः 04.05.2015)
662
मंजिल से गुमराह करने वाले 
खुद राह भटक जाते है
हाथी के भ्रम में 
भिठहुर पर बैठ जाते हैं
(ईमिः 07.05.2015)
663
ये तो शायराना विमर्श हो गया
प्रेरणा को परामर्श मान लिया
बात थी बचने की ग़ुमराह करने वालों से
चलने लगी बात नई राहों के तलाश की
राह भटकाना है जिनकी फितरत
वे अनजाने में ही आत्मघात करते हैं 
हो गर साहस आजाद़ मिजाजी का
ये दुम दबाकर भाग जाते हैं
जाल कितना भी बिछायें ये कुज्ञान का
इंसान चिंतनशील बन ही जाते हैं
समझ जाते हैं इनके मंसूबों की हक़ीकत
जंग-ए-आजादी के ज़ज्बे तराश ही लेते हैं
पिलायें घुट्टी कितनी ही तोतागीरी की
लोग फितरत-ए-बेबाक बयानी तलाश ही लेते हैं
 कविता है बौद्धिक आवारागी
जिसमें जरूरी काम हम छोड़ ही दते हैं
(हा हा)(ईमिः07.09.2015)
664
होता है जिनमें जज्बा खोजने की नई मंज़िलें
उन्हें  नये रास्ते खुद-ब-खुद मिलते जाते हैं.
(ईमिः07.05.2015)
665
पूछने से ही पता चलती है हक़ीकत
लोग कहते कुछ और करते कुछ और हैं
थे जब वो कतवाल पकड़ सकते थे मुज़रिम
तब शह की मुसाहिदी का मसला कुछ और था
वर्दी की वफादारी में धोखा दिया आवाम को
नौकरी के बाद की लफ्फाजी का मामला कुछ और है
होती है निष्ठा विचारधारा का
खून के रिश्ते की नज़ाकत का सिलसिला कुछ और है
हैं आप इंकिलाब के पुजारी
हो अगर जालिम अपना ही सहोदर
ज़ुल्म का पैमाना तब कुछ और है
पूछने से ही पता चलता है
अगले के दिमाग का फितूर क्या है
पूछो खुद से सवाल बवाल करने वाले
तुम्हारे दिल की दहशत क्या है.
(ईमिः 07.05.2015)
666
थी खराब किस्मत या किया होगा पिछले जन्म में पाप
मिला उसे गरीब घर में जन्मने का दैविक अभिशाप
था वह भी कोई खान ही न था मगर आज़म न ही सलमान
न करवा सकता दंगे न कर सकता था खडा परदे पर तूफान
होता नहीं बेअदब ही बेअदीब भी होता गरीब
रईसी  बनाती इंसान को बाअदब और अदीब
सही है कि खुदा मॉफ नहीं करता मगर है रहम दिल
बनाता है हर गरीब को नर्क सह सकने के काबिल
खुदा तो फिर खुदा है करता है सही इंसाफ
कर देता है सड़कें, गलियां और पटरी साफ
नाजायज है सड़क पर गरीब का कब्जा
ईशनिंदा ही नहीं देशद्रोह है जीने का ऐसा ज़ज़्बा
करता जो तब भी जीने का  ऐसा करतब न्यारा
हो जाता है परवरदिगार अल्लाह को जल्दी प्यारा
भेजता वो धरती पर कोई करिश्माई फिल्मी फरिश्ता
पीकर स्कॉच जो खत्म कर दे इनका धरती से रिश्ता
(ईमिः08.05.2015)
667
हो ग़र ईमानदारी वो निष्ठा मकसद-ए-इंसाफ में
भाषा-शैली का लस्कर लेकर आते विचार साथ में
करते हैं जो सारहीन बिम्ब-प्रतीकों की लफ्फाजी
फेंक देता है इतिहास उन्हें समझ विदूषक पाजी
याद रखेगा इतिहास सुहैल अनवर की शायरी
होती है उसमें वेदना जो ग़म-ए-जहां से प्यार की
(ईमिः09.05.2015)
668
हिंद-ओ-पाक की खतरनाक सियासत
है अंग्रेजी सल्तनत की लहूलुहान विरासत
मुल्क बेचती सरकारें सीमा के दोनों ओर
बहकातीं आवाम मचाकर राष्टरवाद का शोर
हो खतरा जब कुर्सी का रचतीं मिलकर दोनों युद्ध सा हाल
बेंच सकें हथियोरों के सौदागर जिससे दोनों को अपना माल
मोदी और मुशर्रफ गले मिलें अमरीका में
सजदे दोनों साथ करें चक्रवर्ती की सभा में
करता जो विरोध आवाम के विरुदध इस जंग का
रा्ष्ट्रवाद के नाम पर कर दिया जाता नज़रेजिंदा
समझेंगी ही इन भेड़ियों की चाल औलादें हमारी
ख़ाक़ हो जायेंगी छल-फरेब की बस्तियां सारी
नहीं रहेगा दुनियां में कोई युद्धोंमाद
सभी दिशाओं में गूंजेगा इंकिलाब ज़िंदाबाद
(ईमिः11.05.2015)
669
बरी हो जाते हैं जयललिता ओ सलमान
लड़ते हैं मुकदमा इनका ज्ञानी ओ गुणवान
छूटे नहीं अभी तक बस बापू आसाराम
लड़ेगा मुकदमा उनका अब स्वामी एक सन्नाम
मर गये अब तक कई चश्मदीद गवाह 
स्वयंभू भगवान  की है महिमा अथाह
क्लीन चिट देता अमित शाह को जो न्यायपाल
सेवानिवृत्ति पर अपनी बन जाता राज्यपाल
हजारों मासूम बिना मुदमा जेलों में सड़ते हैं
बुजुर्ग कोबाड गांधी अद्भुत लिखते हैं
 मगर तिहाड़ में वे किताब को तरसते हैं
हिटलर के वारिस लाइब्रेरियां जलाते हैं
पहिये की कुर्सीवाला सांई जेल जाता है
हत्यारा बाबू बजरंगी मौज उड़ाता है
अच्छे दिन का ग़र रहा यही निज़ाम
क्या करेगा यह भयभीत आम आवाम
तोड़ेगा वह सत्ता के भय का भ्रमजाल
बन जायेगा ज़ुल्म के निज़ाम का काल
होगा न नजर-ए-ज़िंदां कोई बेगुनाह
ज़ालिम को न मिलेगी कहीं भी पनाह
है हमें अभी उस दिन का बेसब्र इंतज़ार
संख्याबल का होगा जब जनबल में इजहार
(ईमिः 14.05.2015)
670
"Until eighteen years old everyone writes poems. After that only two categories of people continue to do so: the poets and the idiots."
-----------------Benedetto CROCE
18 के बाद वाली का पता नहीं, पहले वाली बात तो गलत है, हम सब जानते हैं, मुश्किल से 1 फीसदी युवा ही तुकबंदी पर हाथ आजमाते होंगे, बहरहाल 18 के बाद वाली दूसरी कोटि का एक फौरी नमूना --

अकवि को चिढ़ाने के लिए लिखता हूं कविता
दिल बहलाने के लिए लिखता हूं कविता
दिल जलाने के लिए लिखता हूं कविता
ग़म मिटाने के लिए लिखता हूं कविता
ज़ुल्म से लड़ने के लिए लिखता हूं कविता
नए जमाने के लिए लिखता हूं कविता
इतिहास पढ़ाने के लिए लिखता हूं कविता
ज़ुल्म मिटाने के लिए लिखता हूं कविता

जब बालक था तो सोचता था कविता
होते हुये किशोर सुनने लगा कविता
बिता दी जवानी पढ़ते हुये कविता
आवारागर्दी में बुढ़ापे की लिखता हूं कविता
सुनते नहीं गुनी जन जब कोई कविता
फेसबुक पर चेंप देता हूं कई कविता
छापते नहीं संपादक जब मेरी कविता
दीवारों पर लिखता हूं कविता ही कविता
कहता आलोचक जब नारा है मेरी कविता
शुक्र अदा करने को लिखता हूं कविता
सोचता हूं जब न लिखने की कविता
लिखता हूं जो भी हो जाती कविता
भगाने को चोर भौंकती है कविता
बच्चे को लोरी सुनाती है कविता
हिटलरी स्वास्तिक मिटाती है कविता
चंगेजों के खंजर तोड़ती ये कविता
मुफलिस की आवाज़ बनती ये कविता
रोजी का औजार होती है कविता
मज़लूम का हथियार होती है कविता
ज़ालिम पर ख़ौफ़ ढाती है कविता
इंक़िलाब के नारे लगाती है कविता

लेख का समय खा गयी ये कविता
मगर मुतमइन कर गई ये कविता
(हा हा दूसरी कोटि का ज्वलंत, स्वस्फूर्त उदाहरण)

(ईमिः 14.05.2015)

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