मुकद्दर एक भरम है भूत की तरह का
और वजह हो सकती है महबूब से विरह का
माना कि चाहत में आपकी है नहीं कसर
उसकी चाहत की हो-न-हो और भी डगर
जरूरी नहीं होना सभी चाहतों में टकराव
कम होगा इश्क में मिलकियत का भाव
लाने से हर बात में मुक़द्दर की बात
कमजोर होते हैं हिम्मत के जज्बात
बेफिक्र मिलो महबूब से होकर आज़ाद
है कहीं कोई मुक़द्दर तो दे दो उसे मात
(हा हा यह तो कविता सी हो गयी)
(इमि/२४.०९.२०१४)
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