Tuesday, September 23, 2014

मशीनी ज़िंदगी

है यह मशीनी ज़िंदगी ४० पार के उन मर्दों की बात 
एक की जनसंख्या में सिमटती हो जिनकी कायानात 
शेष पार कर जाती है दृष्टिसीमा जैसे कोइ बेसुरा  राग  
हो जैसे वो तीरंदाज़ अर्जुन के  लक्ष्य का  व्यर्थ भाग
होती है सारी कायानात जिनका मुद्दा-ए-सरोकार  
जवाँ बने रहते हैं कर जाएँ कितनी भी उम्र पार 
बीबी-बच्चे तो पाल ही लेते हैं पशु-पक्षी भी 
अब गूंजनी  चाहिए इन्किलाब की गुहार भी
बीबी-बच्चे ही नहीं अपना होता है सारा संसार 
कर नहीं पाता कोइ भी उनकी दृष्टि-सीमा पार 
मिला दें गर निजी हित हितों की सामूहिकता में 
मिलता है निज को सामूहिक सुख प्रचुरता में 
दुनिया की जनसंख्या सिर्फ एक है जिनके लिए 
जीते हैं मशीन से अमूर्त असुरक्षाओं से घिरे हुए 
जीने का नहीं है मकसद कोई और  जीवनेतर 
खुद एक मकसद है जीना एक ज़िंदगी बेहतर 
चलते हैं साथ साथ ज़िंदगी के और भी प्रकरण 
बनते हैं जो बिन-चाहे परिणामों के उदहारण 
इसलिए कहता हूँ जियो एक सार्थक ज़िन्दगी 
न बनो कभी भगवान न करो किसी की बंदगी 
(हा हा यह भी कविता हो गयी)
(इमि/२४.०९.२०१४)

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