है यह मशीनी ज़िंदगी ४० पार के उन मर्दों की बात
एक की जनसंख्या में सिमटती हो जिनकी कायानात
शेष पार कर जाती है दृष्टिसीमा जैसे कोइ बेसुरा राग
हो जैसे वो तीरंदाज़ अर्जुन के लक्ष्य का व्यर्थ भाग
होती है सारी कायानात जिनका मुद्दा-ए-सरोकार
जवाँ बने रहते हैं कर जाएँ कितनी भी उम्र पार
बीबी-बच्चे तो पाल ही लेते हैं पशु-पक्षी भी
अब गूंजनी चाहिए इन्किलाब की गुहार भी
बीबी-बच्चे ही नहीं अपना होता है सारा संसार
कर नहीं पाता कोइ भी उनकी दृष्टि-सीमा पार
मिला दें गर निजी हित हितों की सामूहिकता में
मिलता है निज को सामूहिक सुख प्रचुरता में
दुनिया की जनसंख्या सिर्फ एक है जिनके लिए
जीते हैं मशीन से अमूर्त असुरक्षाओं से घिरे हुए
जीने का नहीं है मकसद कोई और जीवनेतर
खुद एक मकसद है जीना एक ज़िंदगी बेहतर
चलते हैं साथ साथ ज़िंदगी के और भी प्रकरण
बनते हैं जो बिन-चाहे परिणामों के उदहारण
इसलिए कहता हूँ जियो एक सार्थक ज़िन्दगी
न बनो कभी भगवान न करो किसी की बंदगी
(हा हा यह भी कविता हो गयी)
(इमि/२४.०९.२०१४)
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