मत करो कोई सवाल
सुनना नहीं है गर झूठे जवाब
जानना है गर हकीकत रिश्तों की
हो बेनक़ाब खुद
कर दो हर चेहरा बेनकाब
मगर ओढ़कर नकाब खुद
करते हैं लोग औरों को बेनकाब
दोगलापन है मर्म सभ्यता का
करनी-कथनी का रिश्ता लाज़वाब
होने से इतर दिखने में
नहीं सभ्यता का कोई जवाब
इतिहास एक सिसिला है रिवाजों के समुच्चय का
हैं जिसमें रवायती सवाल और जाहिराना झूठे जवाब
रहते हैं बच्चे सालों माँ-बाप के साथ
होता है सम्प्रेषण उनमें, नहीं कभी कोइ संवाद
अंतरंग कहा जाता है मुहब्बत का रिश्ता
कहना कुछ चाहते है प्रेमी, करते हैं कुछ और बात
चाहिए ग़र सवाल का जवाब और एक दुनियां बेनकाब
करना पडेगा रिश्तों को स्वामित्व से आज़ाद
होगा जब ऐसा आ जाएगा इन्किलाब
मैं भी अनजाने कर गया गुस्ताखी
हो रही थी कुछ करने लगा कोई और बात
मामला है झूठे जवाबों और चेहरों के नकाबों का
मैं करने लगा सभ्यता को ही बेनकाब
बोल गया जूनून में
पाक मुहब्बत-ओ-जन्नत-ए-खानदान के खिलाफ
यकीकन सभ्य लोग मुझे कर देंगे माफ़
(हा हा यह तो शायरी सी हो गयी)
(इमि/२०.०९.२०१४)
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