531
चे
को क्या जरूरत थी
मंत्रिपद
छोड़ बोलीविया जाने की
दुनिया
में इन्किलाबी जूनून जगाने की
और
सीआईए का शिकार होने की ?
लिखते
रहते मर्शिया पूंजीवाद का क्रिस्टोफर काड्वेल
बैठ
लन्दन की लाइब्रेरी में करते और फर्दर स्टडीज
क्या
जरूरत थी जाकर स्पेन में
फासीवाद
से जंग में शहीद होने की?
जैसा
फरमाया श्रीमन् ने उस दिन
लालकिले
की प्राचीर से
करते
हुए संवाद मुल्क की तकदीर से
और
भी रास्ते थे जीने के
तख़्त-नशीं
होने के
क्या
जरूरत थे भगत सिंह को
हंसते
हुए चूमने की फांसी का फंदा?
पूछते
हैं हैं जो ऐसे सवाल
होता
नहीं जिन्हें दुर्बुद्धि का मलाल
नहीं
जानते वे इतिहास का मर्म
और
इन्किलाब का मतलब.
(इमि/१४.०९.२०१४)
532
जागेगा
जब मजदूर किसान
होगा
लामबंद साथ छात्र नवजवान
लिखेगा
तब धरती पर नया विधान
होगा
जो मानवता का नया संविधान
बदल
देगा इतिहास का जारी प्रावधान
होगा
बहमत का अल्पमत पर शासन
मनाने
को उसे समानता का अनुशासन
भोगेंगे
मिल साथ समता का सुख अनूठा
न
कोइ होगा भूखा न कोइ किसी से रूठा.
(इमि/१४.०९.२०१४)
533
एक
पुलिस अधिकारी मित्र ने पोस्ट डाला कि अच्छे काम करने पर भी बदनाम होते हैं और मौत
के शाये में जीते है, उस पर मेरा कमेन्ट:
करते
रहोगे गर काम नेक
करते
हुए इस्तेमाल दिमाग का
मिलेंगी
दुवाएं अनेक
होगा
भला गर आवाम का
माना
नहीं हो वर्दीधारी गुंड़ा
यह
भी माना की वर्दीधारी शेर हो
समझ
नहीं पाता
कि
कौन ज्यादा खतरनाक है
मानवता
के लिए, शेर या गुंडा?
नहीं
समझ पाता हूँ और भी एक बात
होता
क्यों नहीं वर्दीधारी भी साधारण इंसान
मिले
जिसे तालीम न महज हुक्म तामील करने की
बल्कि
विवेक का भी इस्तेमाल करने की
और
सुनने की आवाज़ अंतरात्मा की?
उसी
तरह जैसे समझ नहीं पाता
कि
क्यों नहीं समझता शिक्षक
शिक्षक
होने की अहमियत?
मौत
के खौफ में नहीं जी जा सकती सार्थक ज़िंदगी
मौत
के खौफ में धीरे धीरे मरता है इंसान
मौत
माना कि है अंतिम सत्य मगर अनिश्चित है
ज़िंदगी
सुन्दर सजीव और सुनिश्चित है
जीना
है वाकई गर एक मानिंद जिन्दगी
डालनी
पड़ेगी आदत बेखौफ़ जीने की
सादर
(इमि/१४.०९.२०१४)
534
अगर
दुनिया से ख़त्म हो जाए पुलिसतंत्र
हो
जाएगा किसान और मजदूर स्वतंत्र
करता
है जो क़ानून व्यवस्था का कोरा प्रपंच
हिफाज़त
करता है मुल्क के के थैलेशाहों की
और
जरायमपेशा सियासतदां आकाओं की
वर्दी
के नाम मचता है आवाम में कोहराम
यह
बात और है देता है वही इस वर्दी का दाम
हो
जाए अगर धरती से पुलिस की जमात ख़तम
दुनिया
में लहराएगा अमन-चैन का परचम
किसानों
के पैसे से खरीदता है बन्दूक और गोली
टाटा
के आदेश से खेलता उन्ही के खून से होली
चाहिए
टाटा को कलिंगनगर के किसानों की जमीन
किसानों
ने कहा देंगे जान पर देंगे नहीं अपनी जमीन
हुई
नहें टाटा को आदिवासियों की यह बात बर्दास्त
जमशेद
नगर बनाने में नहीं हुई थी ऐसी कोइ बात
हुए
थे उस वक़्त हजारों आदिवासी बेघर
उनके
वंशज रखे है आस में अब तक सबर
जमीन
न देने की आदिवासियों की मजाल
कायम
होगी इससे एक बहुत बुरी मिसाल
किया
टाटा ने बीजू पटनायक के बेटे को तलब
कहा
उससे आदिवासियों को सिखाने को सबब
भेज
दिया उसने कलेक्टर और पुलिस कप्तान
हुक्म
दिया मारने को अदिवासी किसान
मार
दिया उनने कितने ही मासूम इंसान
सिखाया
जाता है पुलिसियों को मानना आदेश
हो
जाए चाहे विवेक और जमीर का भदेश
पुलिसियों
में होते हैं कई बेहतर इंसान भी
फ़र्ज़
अदायगी में खतरे में डालते हैं वे ज़िंदगी
ऐसे
लोग अपनी जमात में अपवाद होते हैं
अपवादों
से नियम ही सत्यापित होते हैं
होगा
जब कभी ऐसे दिन का आगाज़
वर्दियां
सुनेंगीं अंतरात्मा की आवाज़
सुनेंगीं
आवाम का इन्किलाबी सन्देश
मानेंगीं
नहीं हाकिम का अनर्गल आदेश
बदल
देंगी दिशा बन्दूक की नली का
हाकिम
दिखेगा गुंडा पतली गली का
मारेंगी
नहीं तब वे मजदूर किसान
बंदूकों
पर होगा उनके लाल निशान
(इमि/16.०९.२०१४)
535
भीड़
मंजिलों की और रास्तों की तलाश
हमने
तो कभी सोचा ही नहीं ख़ास मंजिलों की बात
अपनी
तो तयशुदा मंजिल है मंजिल-ए-इन्किलाब
खोजना
नहीं पडा बनाते रहे रास्ते जंग-ए-हालात
दिशा-निर्देशक
रहे मगर मेरे ज़ज्बात-ए-इन्किलाब
हम
हालात से और हालत हमसे लगातार लड़ते रहे
द्वंद्वात्मक
एकता के साश्वत सूत्र पर आगे बढ़ते रहे
हार-जीत
का द्वंद्व नियम है ज़िंदगी के खेल का
अहम
है गुणवत्ता दिमाग-ओ-जमीर के मेल का
समझ
नहीं पाते कभी बदलाव की दिशा-रफ़्तार
हो
जाते हैं दिशाभ्रम के विकट जाल में गिरफ्तार
बेहतर
है भ्रम मगर आस्था के स्पष्ट मिथ्या चेतना से
उभर
नहीं पाती जो जन्म की दुर्घटना की वेदना से
फंसे
नहीं रहते मान नियति हम जाल में चुपचाप
करते
रहते उसे काटने के लगातार क्रिया-कलाप
जीना
भर नहीं है मकसद नायाब ज़िंदगी का
तोड़ते
रहना है किले खुदाओं(ईशों) की बंदगी का
करते
रहेंगे सवाल पर सवाल पर सवाल
सवाल-ए-इन्किलाब
है अज्म-ए-सवाल
विषय
है भीड़ मंजिलों की और रास्तों की तलाश
भटक
गया शायर निकालने लगा दिल की भड़ास
इन्किलाब
ही अंतिम मंजिल है, यह तय है
जिसके
प्रारूप देश-काल पर छाया अनिश्चय है
निश्चित
है अंत किसी भी अस्तित्ववान का
साश्वत
नियम है इतिहास के गतिविज्ञान का
नए
निजाम का आगाज़ है अवश्यम्भावी
जिसका
नक्शा बनायेगी हमारी भावी पीढी
हमें
देता रहना है मौजूदा संघर्षों में अपना योगदान
आयेगा
ही एक-न-एक दिन एक सुन्दर नया विहान
[इमि/१८.०९.२०१४)
536
बहुत
ही लंबा है यादों का कारवां
बुनते
जो खट्टी-मिट्ठी बातों का सिसिला
छद्म
नाम में मगर है बड़ा लोचा
जब
भी है हक़ीकात बयानी की सोचा
मेरे
संसमरणों के हैं ऐसे ऐसे उदाहरण
बड़े
बड़े ज्ञानी-मानी दिखते हैं चारण
वैसे
भी अपन तो काम है इतिहास बनाने का
करेंगी
भावी पीढियां काम बाकलम करने का
मिली
गर कभी फुर्सत लिखेंगे आपबीती भी
जरूरत
है अभी लिखने की जंग-ए-आजादी के नारों की.
[इमि/२०.०९.२०१४]
537
तानाशाह
हर बात से डरता है
डरता
है रामानुजम के लेख से मेधा पाटकर के पाठ से
जो
डरते नहीं तानाशाही आतंक के खौफ से
उन
सबसे डरता है तानाशाह
विरोध
के बदले मौत से होते हैं जो बेख़ौफ़
मौत
के घाट पहुंचा देता है उन्हें तानाशाह
ज़ुल्म
बढ़ता है तो मिट जाता है
यह
हकीकत जानता नहीं तानाशाह
कब्रगाहों
से उठे बगावत के बवंडर में
तिनके
माफिक उड़ जाता है हर तानाशाह
होता
है शून्य इतिहासबोध से
इतिहास
की किताबें जलाता है तानाशाह
अनभिज्ञ
ऐतिहासिक सच्चाई से
कि
इतिहास के कूड़ेदान में समाता है हर तानाशाह
तोड़ता
है दानिशमंद का कलम
और
फोड़ता है अदाकार का साज़
इससे
तो और उभर जाती है आवाज़
यह
बात जानता नहीं तानाशाह
[इमि/२०.०९.२०१४]
538
मत
करो कोई सवाल
सुनना
नहीं है गर झूठे जवाब
जानना
है गर हकीकत रिश्तों की
हो
बेनक़ाब खुद
कर
दो हर चेहरा बेनकाब
मगर
ओढ़कर नकाब खुद
करते
हैं लोग औरों को बेनकाब
दोगलापन
है मर्म सभ्यता का
करनी-कथनी
का रिश्ता लाज़वाब
होने
से इतर दिखने में
नहीं
सभ्यता का कोई जवाब
इतिहास
एक सिसिला है रिवाजों के समुच्चय का
हैं
जिसमें रवायती सवाल और जाहिराना झूठे जवाब
रहते हैं बच्चे सालों माँ-बाप के साथ
होता
है सम्प्रेषण उनमें, नहीं कभी कोइ संवाद
अंतरंग
कहा जाता है मुहब्बत का रिश्ता
कहना
कुछ चाहते है प्रेमी, करते हैं कुछ और बात
चाहिए
ग़र सवाल का जवाब और एक दुनियां बेनकाब
करना
पडेगा रिश्तों को स्वामित्व से आज़ाद
होगा
जब ऐसा आ जाएगा इन्किलाब
मैं
भी अनजाने कर गया गुस्ताखी
हो
रही थी कुछ करने लगा कोई और बात
मामला
है झूठे जवाबों और चेहरों के नकाबों का
मैं
करने लगा सभ्यता को ही बेनकाब
बोल
गया जूनून में
पाक
मुहब्बत-ओ-जन्नत-ए-खानदान के खिलाफ
यकीकन
सभ्य लोग मुझे कर देंगे माफ़
(हा
हा यह तो शायरी सी हो गयी)
(इमि/२०.०९.२०१४)
539
नई
रवायत की एक अपील
यह
नई रवायत की एक अपील है
वर्चस्व
से मुक्ति की दलील है
माफी
की तो है पुरानी परंपरा
बुद्ध-ओ-कबीर
से है इतिहास भरा
पिछली
सदी में की मंटो ने पहल
किया
खुदा को बडप्पन से बेदखल
("खुदा
कभी माफ़ नहीं करता/खुदा से बड़ा है स-आदत हुसैन मंटो")
मैं
तो मंटो का एक अदना सा मुरीद हूँ
सज़ा-से-सुधार
के उसूल के विपरीत हूँ
सभ्यता
का यही आचार
कथनी-करनी
में बड़ी दरार
मेल
नहीं होता सार और सन्देश में
मिलते
हैं लोग बहुरूपिये के भेष में
माना,
सभ्यता के गुणों से महरूम हूँ
शब्द-ओ-कर्म
की एका मकदूम हूँ
इसीलिये
कहता हूँ बात साफ़ साफ़
चाहें
तो कर दें सभ्य लोग माफ़
(इमि/२१.०९.२०१४)
540
ज़िंदा कौमें ज़िंदगी में यकीन करती हैं
करर्ती नहीं इंतज़ार-ए-मौत
मौत है ज़िन्दगी की आख़िरी सच्चाई
देश-काल से परे और समय-तालिका से भी
इतिहास बताता है
कि निश्चित है बे-वजूदी है जो भी बा-वजूद
ज़िंदा कौमें मरतीं नहीं मर कर भी जीती हैं
जीती हैं जो इंतज़ार-ए-मौत या मौत के खौफ़ में
होती हैं मुर्दा कौमें जो जीती नहीं
जी-जी कर मरती हैं पल-पल हर पल
ज़िंदा क़ौमें मरती नहीं
मर मर कर जीती हैं युग-युग
बदलते हुए देश काल
निश्चित अंत की अनिश्चितता से बेख़ौफ़
(इमि/२३.०९.२०१४)
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