भीड़ मंजिलों की और रास्तों की तलाश
हमने तो कभी सोचा ही नहीं ख़ास मंजिलों की बात
अपनी तो तयशुदा मंजिल है मंजिल-ए-इन्किलाब
खोजना नहीं पडा बनाते रहे रास्ते जंग-ए-हालात
दिशा-निर्देशक रहे मगर मेरे ज़ज्बात-ए-इन्किलाब
हम हालात से और हालत हमसे लगातार लड़ते रहे
द्वंद्वात्मक एकता के साश्वत सूत्र पर आगे बढ़ते रहे
हार-जीत का द्वंद्व नियम है ज़िंदगी के खेल का
अहम है गुणवत्ता दिमाग-ओ-जमीर के मेल का
समझ नहीं पाते कभी बदलाव की दिशा-रफ़्तार
हो जाते हैं दिशाभ्रम के विकट जाल में गिरफ्तार
बेहतर है भ्रम मगर आस्था के स्पष्ट मिथ्या चेतना से
उभर नहीं पाती जो जन्म की दुर्घटना की वेदना से
फंसे नहीं रहते मान नियति हम जाल में चुपचाप
करते रहते उसे काटने के लगातार क्रिया-कलाप
जीना भर नहीं है मकसद नायाब ज़िंदगी का
तोड़ते रहना है किले खुदाओं(ईशों) की बंदगी का
करते रहेंगे सवाल पर सवाल पर सवाल
सवाल-ए-इन्किलाब है अज्म-ए-सवाल
विषय है भीड़ मंजिलों की और रास्तों की तलाश
भटक गया शायर निकालने लगा दिल की भड़ास
इन्किलाब ही अंतिम मंजिल है, यह तय है
जिसके प्रारूप देश-काल पर छाया अनिश्चय है
निश्चित है अंत किसी भी अस्तित्ववान का
साश्वत नियम है इतिहास के गतिविज्ञान का
नए निजाम का आगाज़ है अवश्यम्भावी
जिसका नक्शा बनायेगी हमारी भावी पीढी
हमें देता रहना है मौजूदा संघर्षों में अपना योगदान
आयेगा ही एक-न-एक दिन एक सुन्दर नया विहान
[इमि/१८.०९.२०१४)
No comments:
Post a Comment