यह फिलीपीन्स के राष्ट्रपति द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को मजाकिया लहजे में नकारने की खबर की लिंक पर एक ईश्वरवादी कमेंट पर कमेंट है।
भगवान/धर्म आत्मबलविहीन मनुष्यों का सहारा है। भगवान कुतर्क और पोंगापंथी प्रवृत्ति का तर्क है और धनपशुओं के शासन का औजार। जब तक धर्मांधता रहेगी धर्म के नाम पर चतुर चालाक लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए लोगों को उल्लू बनाते रहेंगे। अगर भगवान स्वयंभू और श्रृष्टि का निर्माता है तो ऐसी घटिया श्रृष्टि क्यों बनाया जहां उसके बंदे उसके नाम पर मानवता का विनाश करते हों? उसके इतने अलग अलग भयावह रूप क्यों है? 40 साल पहले मेरी कलम खो गयी थी, मैंने कहा अगर भगवान नाम की कोई शक्ति है तो मेरा कलम खोजवा दे। एक खोई कलम खोजने में जो मदद नहीं कर सकता, वह और क्या बना-बिगाड़ सकता है? हा हा। आज से 26-27 साल पहले मेरी पत्नी ने किसी बात पर कहा कि मैं भगवान को नहीं मानता इसीलिए गड़बड़ होता है। मैंने कहा कि भगवान अगर इतनी छोटी तथा अहंकारी सोच का है कि मेरे जैसे अदना इंसान से बदला लेने आ जाता है, जबकि दंगे रोकने नहीं पहुंचता, तो उसकी और ऐसी-तैसी करूंगा, जो बिगाड़ना हो बिगाड़ ले। वह जब है ही नहीं तो बिगाड़ेगा क्या? उसके उत्पाती भक्त जरूर बिगाड़ने की कोशिस करते हैं। जो खुदा से नहीं डरता वह नाखुदाओं से क्या डरेगा? भगवान है भी तो इतना असहाय कि अात्म रक्षा नहीं कर सकता तथा उसकी रक्षा में भक्तों को उत्पात करना पड़ता है। इतना सोना-चांदी के बावजूद सोमनाथ खुद अपनी रक्षा नहीं कर पाए, गजनी उनका मंदिर तोड़-उजाड़-लूट कर चला गया। भक्तों में ही इतनी शक्ति-बुद्धि देते कि वे गजनी की ऐसी-तैसी कर देते। भगवान की सर्वशक्तिमानत्व के विरुद्ध बहुत तर्क हैं, छोड़िए इन सब बातों को, हिंदुओं का तो श्रृष्टि का रचइता, भगवान ही अन्यायी है जो लोगों को अपने अलग-अलग अंगों से पैदाकर उन्हें छोटा-बड़ा बना देता है।
हर समुदाय, खास भौगोलिक-ऐतिहासिक परिस्थियों की अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के अनुसार, अपनी भाषा, मुहावरे, रहन-सहन की प्रथा, देवी-देवता तथा धर्म रचता है। इसीलिए देश-काल के अनुसार उसका स्वरूप तथा चरित्र बदलता रहता है। पहले भगवान असहाय और गरीब की मदद करता था पूंजीवाद में उसकी करता है जो खुद की मदद में सक्षम हो। समाज का वर्ण(वर्ग) विभाजन पहले हुआ उसकी धर्मशास्त्रीय पुष्टि के लिए ब्रह्मा की कहानी बाद में गढ़ी गयी। सबके स्वर्गलोक समाज के ही प्रतिबिंब होते हैं। रोमन कैथलिक चर्च का देवलोक यूरोप के सामंती समाज का ही प्रतिबिंब था। हिंदू पुराणों का देवलोक वर्णाश्रमी समाज का ही प्रतिबिंब है। शासक वर्ग धर्म को राजनैतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। समाजीकरण के दौरान वर्चस्वशाली ताकतें मनुष्य की समाज-प्रदत्त आस्था की बेदी पर विवेक को कुंद करते हैं, क्योंकि विवेक को उन्मादित कर पाना कठिन है आस्था को आसान। गोरक्षक हत्यारों और दंगाइयों का भाजपा सरकार के मंत्रियों द्वारा फूलमाला के साथ सम्मान, उन्माद की संभावनाओं को प्रोत्साहन के प्रयास है। सुबह सुबह बहुत समय खा गये भगवान जी।
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