Wednesday, July 4, 2018

बिहार में मार्क्स की द्विशताब्दी


बिहार में मार्क्स का द्विशताब्दी समारोह
ईश मिश्र
पिछले दिनों (16-20 जून 2018) प्राचीनकाल से ही क्रांति-प्रतिक्रांतियों की धरती, बिहार की राजधानी पटना में एसियन डेवलेपमेंट एंड रिसर्च इंस्टीट्यूट (आद्री) द्वारा ‘मार्क्स: व्यक्तित्व; विचार; प्रभाव’ पर पटना में आयोजित ऐतिहासिक सम्मेलन में शिरकत का मौका मिला। आज जब दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियां हाशिए पर खिसक गयी हैं; सोवियतसंघ के पतन के बाद, नवउदारवादी बुद्धिजीवी इतिहास और मनुष्य के वैचारिक विकास के अंत की घोषणा कर रहे हैं; प्रतिक्रियावादी ताकतें आक्रामक रूप से मार्क्सवाद का मर्शिया पढ़ रही हैं, ऐसे में उनके द्विशताब्दी समारोह के पूप में, मार्क्स पर 5 दिवसीय सघन संवाद का आयोजन एक अपने आप में एक ऐतिहासिक परिघटना है। सभी महाद्वीपों का प्रतिनिधित्व करते हुए 18 देशों के कई जाने-माने शिक्षाविदों तथा विद्वानों एवं शोधकर्ताओं ने सम्मेलन में शिरकत की। इस सुव्यवस्थित आयोजन के लिए आयोजक साधुवाद के पात्र हैं। सम्मेलन की एकेडमिक परामर्श कमेटी के अध्यक्ष,  ‘लॉर्ड’ मेघनाद देसाई के उद्घाटन उद्बोधन से शुरू और टोरंटो विश्वविद्यालय के एमेरिटस प्रोफेसर हॉलैंडर के समापन भाषण के अंतराल के सघन सत्रों में, 38 जाने-माने विद्वानों के अभिभाषणों तथा 17 शोधपत्रों की प्रस्तुति तथा वाद-विवाद के माध्यम से मार्क्सवाद के विभिन्न पहलुओं पर प्रसंगिक विमर्श हुए। वैचारिक एवं व्याख्यागत विविधताओं के बीच से उभरा प्रमुख संदेश, मार्क्सवाद के बारे में प्रचलित इस कहावत के रूप में पेश किया जा सकता है: ‘मार्क्सवाद दुनिया को समझने का एक गतिशील विज्ञान है और बदलने की वर्ग-संघर्ष की क्रांतिकारी विचारधारा’। मार्क्सवाद मानव-मुक्ति का विचार है और मंजिल मिलने तक सार्थक बना रहेगा।  
50 साल पहले, 1967 में, बिहार के छोटे से शहर बेगूसराय में मार्क्स के जन्म के 150वीं वर्षगांठ तथा पूंजी के प्रकाशन की सौवीं के उपलक्ष्य में एक राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया था, जिसमें देश भर के जाने माने विद्वानों ने शिरकत की थी। उस आयजन का सारा दारोमदार दो क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों – डॉ. पिजुशेंदु गुप्त तथा प्रोफेर राधाकृष्ण चौधरी के कंधों पर था। यह स्मेलन उस सम्मेलन के स्मृति में आयोजित किया गया। “मार्क्स की द्विशतात्ब्दी के उपलक्ष्य में आयोजित मौजूदा सम्मेलन, उस स्मरणीय पहल को समर्पित, उसी की अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है; यद्यपि तबसे भूमंडलीय और स्थानीय हालात में बहुत तब्दीली आ चुकी है।” एक छोटे शहर में उस समय मार्क्स पर बड़ा आयोजन निश्चित प्रशंसनीय है।
इस सम्मेलन में इस बात का संज्ञान तो लिया गया कि बदले भूमंडलीय परिदृष्य में न सिर्फ पूंजीवाद आर्थिक संकट के साथ ही सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है बल्कि उसका विकल्प समाजवाद भी राजनैतिक संकट के साथ सिद्धांत के संकट के भी दौर में है। यह सम्मेलन विविध राष्ट्रीय-अंतर्राष्टीय अनुभवों के विभिन्न देशों के जाने-माने विद्वानों ने संबोधन के नाते ही नहीं बल्कि विषय-वस्तु तथा व्याख्या की इंद्रधनुषी विविधता के चलते भी ऐतिहासिक था।  कई जाने-माने और कुछ कम जाने-माने मार्क्सवाद के विद्वानों ने मार्क्सवाद के तमाम पहलुओं – मार्क्सवादी अर्थशास्त्र की नवउदारवादी व्याख्या; विस्थापन से संचय; विभिन्न ऐतिहासिक परिस्थितियों में मार्क्सवादी सिद्धांतों का इस्तेमाल; भारत के संदर्भ में मार्क्सवाद  आदि मुद्दों पर विचार-विमर्श किया। संभाषणों और शोधपत्रों के विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है, लेकिन यह सम्मेलन इस मामले में भी ऐतिहासिक है कि इससने विभिन्न मार्क्सवादी परिप्रक्ष्यों और इसके प्रयोग की समीक्षाओं पर व्यापक विमर्श हुआ, लेकिन ‘क्या करना है?’ सवाल अछूता ही रहा। लगता है इसके लिए किसी लेनिन का इंतजार करना पड़ेगा! ऐसा कहना सम्मेलन की आलोचना नहीं है, न ही बहुत ही सफलता से आयोजन को समुचित कार्यरूप देने वाले आयोजकों की, बल्कि आत्मालोचना है, मैं भी सम्मेलन का हिस्सा था, तथा भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की समीक्षा प्रसतुत किया था। सुविदित है कि आत्मालोचना एक प्रमुख मार्क्सवादी अवधारणा है जिसे कम्युनिस्ट नेताओं नें माला चढ़ाकर दीवार में टांग दिया है। जीवन के अंतिम दिनों में मार्क्सवादी इतिहासकार हॉब्सबाम ने दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों को फिर से मार्क्स पढ़ने की सलाह दी थी। मार्क्सवाद का सैद्धांतिक और व्यावहारिक विकास आंतरिक तनावों से परिपूर्ण रहा है। यह बहुआयामी अंतर्विरोधों को झेलते हुए हुए नये-नये सवालों से जूझता रहा है, जिनके जवाब खोजने में या तो असफल रहा है, तो कभी उन्हें सरलीकृत कोटियों में बांटकर विश्लेषण तक सीमित कर दिया। अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन ने काफी उतार चढ़ाव देखा। इतिहास की अभूतपूर्व गति को समझने में नाकामी के चलते मुख्यधारा के कम्युनिस्टों ने जटिल सवालों के गैर-मार्क्सवादी. फौरी सरल जवाब ढूंढ़ लिया। बावजूद इसके कि सम्मेलन में नव उदारवादी साम्राज्यवादी पूंजी द्वारा मजदूरों तथा अन्य दलित तपकों के दमन-शोषण; नल्लवादी तथा सांप्रदायिक फासी वाद वाचाल आक्रामकता पर बेचैनी नहीं दिखी, क्रांतिकारी लहरों की उतार की इस बेला मार्क्स तथामार्क्सवाद के विभिन्न पहलुओं पर लंबा विमर्श एक उत्साहजनक कदम है। नस्लवाद के मुद्दे पर अमेरिका की ब्राउन युनिवर्सिटी के युवा शोध-छात्र जारेद के शब्द कानों में प्रतिध्वनित होते हैं। उसकी प्रस्तुति आत्मविशवास से लबालब थी। उसने मार्क्सवाद के अतिरिक्त मूल्य के सिद्धांत के आधार पर मार्टिन लूथर किंग के ‘मूल्यों की क्रांति’ के अभियान की तार्किक समीक्षा पेश किया। निजी बात-चीत में उसने अश्वेत होने के चलते पीयचडी के बाद नौकरी की चठिनाइयों की चिंता साझा किया। सैद्धांतिक रूप से पूंजीवाद ने जन्म-आधारित योग्यता का उन्मूलन कर दिया है, व्यवहार में सर्वव्यापी। कहनी-कथनी (सिद्धांत-व्वहार) का अंतर्विरोध सभी वर्ग समाजों का अंर्निहित गुण रहा है, पूंजीवाद सर्वाधिक विकसित वर्ग समाज है, अतः अंर्विरोध भी सर्वाधिक। भारत में सैद्धांतिक (संवैधानिक) रूप से जातिवाद समाप्त हो चुका है लेकिन जातिवादी मिथ्या-चेतना सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के रास्ते का एक अवरोधक बना हुआ है।
सभी सत्र मार्क्स, एंगेल्स तथा क्लासिकी अर्थशास्त्रियों एडम स्मिथ और रिकार्डो समेत प्रमुख मार्क्सवादी चिंतकों नाम पर थे, बस स्टालिन और माओ के नाम नदारत थे। ज्यादातर लेक्चर और पेपर विशिष्ट शोध-क्षेत्रों से संबंधित थे। इन इंद्रधनुषी प्रस्तुतियों का कोलाज मार्क्सवाद की बहुरंगी व्याख्याओं एक सुंदर निकाय बनेगा। इसीलिए मार्क्सवाद एक गतिशील विज्ञान है, सामाजिक समीक्षा की एक विशिष्ट धारा है। सम्मेलन में मार्क्सवादियों तथा मार्क्सवाद के विद्वानों द्वारा, विभिन्न, विशिष्ट परिस्थितियों में मार्क्सवादी सिद्धांतों की व्याख्या तथा प्रयोग पर व्यापक चर्चा एस बात की पुष्टि है की क्रांति के विचार और औजार के रूप में मार्क्सवाद की धारा सदानीरा बनी रहेगी।
यहां विभिन्न संबोधनों तथा पेपरों के विस्तार में जाने की न तो गुंजाइश है न जरूरत। कार्ल मार्क्स स्मारक पहले संबोधन में ऐतिहासिक अनुभवों के आधार पर भूमंडलीकरण के भविष्य का अनुमान लगाया गया (दीपक नैयर) और अगले में मार्क्स के पुनर्पाठ के जरिए मार्क्सवाद के पुनर्फाठ पर जोर दिया गया (दीपांकर गुप्ता)। क्रिप्टन जेनसेन ने अमेरिका में अश्वेत मार्क्सवाद के इतिहास पर प्रकाश डालते हुए बताया कि अश्वेत अमेरिकियों के लिए मार्क्सवाद नस्लवाद से मुक्ति का औजार रहा है। मार्क्स के जीवन के विभिन्न पहलुओं; प्राचीन भारतीय द्वंद्ववाद; डैविड हार्वे के विस्थापन से संचय का सिद्धांत तथा नवउदारवादी ‘आदिम संचय’ के वाद-विवाद; मार्क्सवाद की विभिन्न धाराओं तथा विशिष्ट परिस्थितियों में मार्क्सवाद के सिद्धांतों के ऐतिहासिक प्रयोगों की समीक्षा; मार्क्स की रचनाओं में तथाकथितज्ञानमामांसीय विच्छेद; मार्क्सवाद का सैद्धांतिक विखंडन तथा पुनर्निर्माण; कम्युनिस्ट आंदोलन में संसदीय संशोधनवाद आदि विषयों पर 5 दिन चले सघन सत्रों में, विविधता एवं विद्वतापूर्ण विमर्श तथा सघन चर्चाएं हुईं। लेकिन नवउदारवादी पूंजी के चरित्र तथा उसके चलते सांस्कृतिक-बौद्धिक अधिरचनाओं (सुपर-स्ट्रक्चर्स) में तब्दीली की व्याख्या तथा तदनुरूप कार्यनीति के अर्थों में समाजवाद के सैद्धांतिक संकट पर चर्चा की कमी खली। दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के क्षीण होते प्रभाव के कारणों पर भी कोई सार्थक चर्चा नहीं हुई। लेकिन जो नहीं हुआ उल पर चर्चा बेकार है। सामाजिक प्रतिक्रियावाद के इस दौर में बिहार (भारत) की राजधानी में मार्क्स की द्विशताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में दुनिया के जाने-माने विद्वानों की शिरकत वाला इस तरह के महासम्मेलन का आयोजन प्रेरक तथा उत्साहवर्धक होने के साथ मार्क्सवाद की सर्वकालिक प्रासंगिकता की प्रामाणिकता का प्रमाण भी है। मार्क्स ने एटींथ ब्रुमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट  (1851-52) में लिखा है कि मनुष्य अपना इतिहास खुद रचता है, लेकिन मनमाफिक परिस्थितियों में नहीं बल्कि अतीत से विरासत में मिली परिस्थितियों में। मार्क्स और एंगेल्स ने कई जगहों पर इस बात को दुहराया है कि वर्गचेतना से लैस, संगठित सर्वहारा अपने  मुक्ति की लड़ाई खुद लड़ेगा। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण यानि वर्गचेतना के प्रसार के लिए जरूरी है शासकवर्गों द्वारा थोपी सामाजिक चेतना के मिथ्याबोध से मुक्ति। यह सम्मेलन का एक अंतर्निहित संदेश है।
अंत में आलोचकभाव में कहा जाए तो यह सम्मेलन वर्ग-संघर्ष की राजनैतिक विमर्श में नई जान फूंकने तथा सामाजि चेतना के जनवादीकरण का एक सार्थक प्रयास था। यह दुनिया की विविध व्याख्या करने वाले मार्क्सवाद के विद्वानों का सम्मेलन था, दुनिया बदलने वाले मार्क्सवादियों का नहीं। एंगेल्स ने 1891  में लिखा था कि मार्क्सवादी वह नहीं है जो मार्क्स या उनकी रचनाओं से उद्धरण देता फिरे, बल्कि वह जो खास परिस्थितियों में वैसी प्रतिक्रिया दे, जैसा मार्क्स देते। इतिहास के इस प्रतिक्रांतिकारी-प्रतिक्रियावादी दौर में, मार्क्स, एंगेल्स के उद्धरणों की अनुगूंज के साथ, मार्क्स की द्विशताब्दी देश-विदेश के विद्वानों का, पटना में, पांचदिवसीय सम्मेलन एक बड़ी बात है। मार्क्स पर इस सम्मेलन की समीक्षा का समापन एके गोपालन की पुस्तक इन द कॉज ऑफ पीपुल के निम्न उद्धरण उद्धरण से करना अनुचित नहीं होगा, जो हर सुबह, वातानुकूलित सभा तथा आवास स्थल से निकलते ही पटरी, बसस्टैंड, ठेले पर एंड़-बेंड़ सोते लोगों को देखकर दिमाग में आता था।

एक नया जीवन, नया माहौल, नई संगति – मैंने खुद को जिस माहौल में महसूस किया वह किसी इंसान को बर्बाद करने के लिए काफी है। प्रथम श्रेणी की यात्राएं; संसद में आरामदेह चैंबर; इफरात पैसा; शानदार घर – और बिना किसी भारी जिम्मेदारी का जीवन। आरामतलब जिंदगी की अनुकूल परिस्थितियां। कुल मिलाकर अतिमहिमामंडित संसदीय जनतंत्र से निराशा ही होती है”।  
वक्त की जरूरत है कि ये बौद्धिक विमर्श लोगों तक पहुंचे तथा लोग मिथ्या सामाजिक चेतना के जाल से मुक्त हो जनचेतना के सैलाब से शासक वर्गों की नींद हराम कर दें।
27.06.20018



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