Wednesday, July 18, 2018

कायरों की हिंसक भीड़ और राज्य




कायरों की हिंसक भीड़ और राज्य
ईश मिश्र
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बहुत दिनों से राज्य की उत्पत्ति के बौद्ध-सिद्धांत पर एक लेख पूरा करने में लगा हूं। स्वामी अग्निवेश पर संघ के युवा गिरोहों के सुनियोजित, बर्बर हमले की खबर और तस्वीरों से देश की दिशा की चिंता की गहनता और बढ़ गयी। सभी शिक्षाएं समकालिक समस्यायों को संबोधित होती हैं, महान शिक्षाएं सर्वकालिक हो जाती हैं। आम(सर्व)जन की भाषा में, ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति को झेलते हुए बुद्ध की शिक्षाएं कालजयी बनी हुई हैं। वैसे तो बुद्ध की शिक्षा सदाचार पर भिक्षुओं को संबोधित हैं, दीघनिकाय के अगण्णा सूत्त में दुष्टों के लिए एक दंड-संहिता की जरूरत और उसके संचालन की सत्ता पर विमर्श है। दीघनिकाय 5 बौद्ध निकायों (संकलनों) में एक है। इसके अनुसार, परिवार और संपत्ति के आविर्भाव के चलते समाज में कुछ बुराइयां आ गयीं और कुछ दुष्ट लोग लोगों की संपत्ति (चावल) चुराने लगे। इस तरह के दुष्टों को सजा देने के लिए एक वैध शासन की जरूरत महसूस हुई। इसके लिए लोगों ने अपने में सबसे बुद्धिमान और न्यायी व्यक्ति को अपना महासम्मत चुना। अहिंसक दर्शन में दंड की जरूरत इस लिए पड़ी कि समाज के व्यापक अमन-चैन के लिए कुछ दुष्टों को सजा देना उचित ही नहीं, वांछनीय इसलिए है कि दुष्ट को दंडित होते देख और लोग दुष्कर्म से परहेज करेंगे। राज्य की उत्पत्ति के प्राचीनम सामाजिक अनुबंध के बौद्ध सिद्धांत पर चर्चा से विषयांतर की गुंजाइश नहीं है, मकसद महज इस बात की पुष्टि करना है कि अपराध-प्रवृत्ति निजी संपत्ति के उदय से जुड़ी है। आधुनिक (पूंजीवादी) राष्ट-राज्य के जैविक बुद्धिजीवी, उदारवादी चिंतकों ने भी लोगों के जान-माल की रक्षा की जरूरत के तहत राज्य की उत्पत्ति के सामाजिक अनुबंध सिद्धांत गढ़े गए। लेकिन यदि दोषी भीड़ हो तो किसे सजा मिले? जैसा कि राणा अयूब ने 2000 में गुरात के गृह सचिव चक्रवर्ती के हवाले से बताया गया है कि एक अमूर्त भीड़ के नाम मामला दर्ज कर लिया जाता है। जो पकड़े जाते हैं और सजा भी पाते हैं, ज्यादातर मामलों में वे तो मुहरे होते हैं। पिछले महीने गुजरात हाईकोर्ट के सोलह साल बाद आए गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार फैसले में जिन 24 लोगों को सजा दी है, क्या वाकई वे ही असली दोषी हैं? क्या उनका सोसाइटी के किसी परिवार/परिवारों से कोई जाती दुश्मनी थी? उस अमानवीय बर्बर नरसंहार की भागीदारी से उन्हें कोई फायदा हुआ? उनका क्या मकसद हो सकता इस कत्ल-ए-आम में? कैसे बनता है भीड़ का विवेक कि ठीक-ठाक इंसान भीड़ में विवेकहीन पशु क्यों हो जाता है? इतना ही नहीं अपनी पशुता का औचित्य साबित करने के लिए कुतर्क भी करता है।
विवेक और पारस्परिक समानुभूति सी प्रवृत्तियां ही मनुष्य को पशुकुल से अलग करती हैं। क्यों मनुष्य पशुकुल मे वापसी के उंमाद में हिंसक बन जाता है? क्या स्वामी अग्निवेश का मां-बहन की गालियों और भारत माता की जय से सम्मान नवाजने के बाद पिटाई करने वाले वीडियों में दिखते एबीवीपी और बजरंग दल वाले ही जिम्मेदार हैं या कीबोर्ड किसी और के पास है? अग्निवेश से इनकी कोई जाती दुश्मनी तो है नहीं? इस हिंसा का राजनैतिक अर्थशास्त्र खंगालने पर मिलता है कि इसके तार राजनैतिक और आपराधिक माफिया से जुड़े हैं।

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बच्चे चुराने या गाय काटने की अफवाह या धर्म-ग्रंथ को नापाक करने से उपजी भीड़ोंमादी हिंसा और संघ के विभिन्न संगठनों विरोधियों के कार्यक्रमों में उत्पात मचाने और मारने धमकाने वाली हिंसा के परिणाम और मकसद एक ही होने के बावजूद उनके चरित्र में थोड़ा फर्क है। पहले किस्म की भीड़ हिंसा में कई साधारण लोग भी अफवाहों से प्रभावित हो भईड़ में शामिल होते हैं, दूसरे में सारे नायक राष्ट्र-भक्तिके प्रशिक्षित योद्धा होते हैं। भीड़ के विवेक पर चर्चा बाद में अभी अग्निवेश के हिंसक सम्मान के राजनैतिक अर्थशास्त्र पर। संतोष कुमार झा ने फेसबुक पुर घटना की जगह के बारे में ये सूचना शेयर किया है:

पाकुड़ झारखण्ड का आखरी छोर है, जो बंगाल और बंग्लादेश से लगा हुआ इलाका है। इसकी प्रसिद्धि यहाँ के पत्थर व्यवसाय यानी #गिट्टी को लेकर है। पिछले 5 दशक से गिट्टी के व्यवसाय से जुड़े होने के कारण यह बाहरी व्यवसायियों और मसल पावर वाले राजनैतिक समर्थन प्राप्त लोगो की कमाने वाली जगह रही है। बाहर से आये मारवाड़ियों, गुजरातियों और बिहार / उत्तरप्रदेश / झारखंड / बंगाल के बाहुबली यहाँ बसे हुये हैं। उत्तरप्रदेश का बाहुबली गैंगेस्टर ब्रजेश सिंह की आखरी गिरफ्तारी भी यहीं हुई थी। पुरानी फाइलों को खंगाले तब पता चलेगा ब्रजेश सिंह का कारोबार 3 हजार करोड़ के आँकड़े पर था। क्या बिना राजनैतिक संरक्षण के इंडियाज मोस्ट वांटेड नाम बदल कर वहाँ सालों रह सकता था?


यूँ तो आदिवासी बहुल इलाका है पर सारी सत्ता का नियंत्रण बाहुबली माफिया और बाहरी पूंजी करती है। भाजपा के झारखण्ड में लगातार शासन होने की वजह से यह स्टैब्लिशमेंट और गहरा हुआ है।लगातार उत्पादन हो इसके लिये श्रम की जरूरत पड़ती है। आदिवासियों से सस्ता श्रम कौन उपलब्ध करा सकता है ? अतः मजदूरों के दलाल सुदूर जंगल तक मिल जायेंगे। बंग्लादेश का बॉर्डर बगल में होने के करण बंगलादेशी घुसपैठिये भी इस इलाके में अच्छी मात्रा में हैं। भाजपा के लिये यह मुफीद अवसर की तरह है जिसकी वजह से संघ के पैर यहाँ जम चुके हैं।
अग्निवेश क्यों गये होंगे वहाँ ? बन्धुआ मजदूरी और आदिवासियों के सवालों को लेकर ही ना ? सारे बवाल की जड़ वहाँ के मुद्दों को बाहर पब्लिक डोमिन में आने से रोकना है। हमला अप्रत्याशित नही सुनियोजित है

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