एक पोस्ट पर किसी ने सत्ता के लिए दल-बदल में राकेश सिन्हा की तुलना राम विलास पासवान की, उस पर।
इस मामले में पासवान से सिन्हा की तुलना नहीं की जा सकती। पासवान कुर्सी सूंघता रहता है। राकेश सिन्हा छात्र जीवन से ही अपनी विचारधारा पर अडिग रहा है उसकी विचारधारा की गुणवत्ता को खारिज किया जा सकता है, यह अलग बात है। और वह चंद संघियों में है जो लिखते-पढ़ते हैं। मेरी उससे मुलाकात तीनमूर्ति लाइब्ररी में भी होती है और आरटीयल में भी। उसके लेखन की गुणवत्ता पर बहस हो सकती है। वह एक बड़े कम्युनिस्ट नेता का पुत्र होकर छात्र जीवन से ही आरयसयस का समर्पित कार्यकर्त्ता रहा है। मैं कर्मकांडी ब्राह्मण परिवेश में पैदा होकर बरास्ता आरयसयस मार्क्सवादी हो गया। हम एक दूसरे के परस्पर स्वघोषित वैचारिक विरोधी हैं, दुआ-सलाम भी होता है क्योंकि हमारा खेत-मेड़ की लड़ाई तो है नहीं, विचारों की है और कोई अंतिम सत्य नहीं होता। यह इसलिए कह रहा हूं राम विलास पासवान की तरह वह हवा का रुख भांप कर नहीं समझौता करता। मुझे ताज्जुब इस बात का है कि उसके पिताजी, कॉमरेड बंगाली सिंह, बेगूसराय से सीपीआई सांसद और कई बार यमयलए रह चुके हैं। आज ही पेसबुक से ही पता चला।कम्युनिस्ट अपने विचार बच्चों पर संस्कार के नहीं थोपता, न ही वंशवाद चलाता है।
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