Sunday, May 31, 2015

वे डरते हैं सच से

अंबेडकर-पेरियार स्टडी सर्कल पर पाबंदी पर प्रतिक्रिया

वे डरते हैं बुद्ध से
वे डरते हैं बुद्धि से
वे डरते हैं मार्क्स से
वे डरते हैं विज्ञान से
वे डरते हैं फुले से
वे डरते हैं इतिहास से
वे डरते हैं अंबेडकर से
वे डरते हैं जाति के सर्वनाश से
वे डरते हैं सच से
वे डरते हैं मेहनतश के हक़ से
वे डरते हैं आवाम से
वे डरते हैं खुद से
वे डरते हैं स्वतंत्र सोच से
वे डरते हैं किताब से
वे डरते हैं इंकिलाब से
इसी लिये डराते हैं सत्ता के हथियारों से
गूंजेगा इससे चप्पा इंकिलाब के नारों से
वे डरते हैं कि हमने डरना बंद कर दिया
हमें डराते रहना है उन्हें
बंदूक से नहीं विचारों से
(ईमिः01.06.2015)
यह तुकबंदी 1 लोकप्रिय क्रांतिकारी गीत से प्रेरित है)

पहनो वही तुम्हें जो भाये

पहनो वही तुम्हें जो भाये
बोलो वही जो प्रमाणित कर पाओ
आज़ादी को दो नई परिभाषा 
बढ़ने दो कठमुल्लों की हताशा
(ईमिः 01.06.2015)

आओ चलते हैं साथ साथ

जो कहता है चलने को अपने पीछे 
लात मारता हूं उसके बटुक प्रदेश पर
जो कहता है मेरे पीछे चलने की बात
मारता हूं मुक्का उसकी नाक पर
आओ चलते हैं साथ साथ 
(ईमिः 30.05.2015)

Saturday, May 30, 2015

कबीर कौन था

नव भारत टाइम्स में 23 जनवरी 1992 (बाबरी विध्वंस से लगभग साल भर पहले) को छपा यह लेख इतनी जीर्ण-सीर्ण अवस्था में मिला कि इसकी फोटो-कॉपी या स्कैनिंग संभव नहीं. एक-डेढ़ साल से इसे टाइप कर कम्प्यूटर में सुरक्षित करने की सोच रहा था. परसों मेरी एक स्टूडेंट ने लानत के साथ याद दिलाया. जस-का-तस टाइप कर दे रहा हूं.
31.05.2015
कबीर कौन था
ईश मिश्र

मेरे एक परिचित हैं. प्रायः तलाश-ए-माश (नौकरी की तलाश) में मशगूल रहते हैं. ऐसा नहीं कि इन्हें नौकरी ही नहीं मिलती. नौकरियां तो मिल जाती हैं लेकिन ज्यादा दिन तक साथ नहीं निभा पातीं. एक बार इन्हें एक नामी-गिरामी कॉलेज में नौकरी मिल गयी. ये और इनके मित्र बहुत मुश्किल से इस घटना की सत्यता को गले से नीचे उतार पाये.
देहाती पृष्ठभूमि वाले ये सज्जन रजनीति विज्ञान की अंग्रेजी माध्यम की क्लास में राजनैतिक विचार पढ़ाने लगे. वैसे इनकी अंग्रेजी तो अच्छी है लेकिन अंग्रेजी माध्यम वाला ऐक्सेंट नहीं है. खैर इससे कोई फर्क न पड़ता यदि ये लीक पर बने रहते. हुआ यह कि एक दिन मैक्यावली के राजनैतिक विचारों को समझाने के लिये यूरोप के नवजागरणकाल के साहित्य और कला के संदर्भों तथा व्यक्ति की आध्यातमिक और सामाजिक मूल्यों की चर्चा करते करते वे कबीर पर बात करने लगे. इससे पहले भी ये कई बार ऐसी हरकतें कर चुक थे. एक बार प्राचीन यूनान की दार्शनिक परंपराओं की चर्चा करते करते कौटिल्य के बारे में बताने लगे थे. खैर उस बार तो बच गये थे. विद्यार्थियों के यह पूछने पर कि “कौटिल्य कौन था?” ‘अरस्तू ‘ का समकालीन और ‘मगध साम्राज्य का महामंत्री’ के संदर्भों से मामला सुलझा लिया था. लेकिन कबीर का ज़िक्र उनके लिये मंहगा पड़ा. उन्हें किसी यूरोपीय महापुरुष का नाम ही नहीं याद आया कबीर को जिसका समकालीन बता सकते.
‘यह कबीर कौन था?’ राष्ट्वादी संस्कारों से लैस एक विद्यार्थी ने पूछ ही दिया. उसका साथ कुछ और छात्र-छात्राओं ने भी दिया. अध्यापक महोदय को यह सवाल बहुत नागवार लगा. यह उनकी ज्यादती थी. कोर्स के बाहर की बातें न जानना विद्यार्थियों का जन्मसिद्ध अधिकार है. अतः इसके लिये उनपर किसी भी अध्यापक की नाराज़गी गैरलाज़मी.
कोर्स से इतर बातों में राष्ट्रीय भविष्य का समय नष्ट करने के लिये माफ़ी मांग कोर्स में वापस आने की बजाय वे और भी दूर चले गये। यूरोपीय नव जागरण के आध्यात्मिक और सामाजिक समानता के संदर्भ में वे कबीर के जीवन और विचारों की विस्तृत चर्चा करने लगे. यह बताने के साथ कि कबीर एक विधवा ब्राह्मणी की कोख से पैदा हुआ, जिसने बदनामी के डर से पैदा होते ही ुसे किसी सुनसान जगह पर फेंक दिया था, उस समय की सामाजिक संरचना, ब्राह्मण समाज और ब्राह्मणवाद के बारे में भी कुछ अनर्गल बातें बोल गये. विद्यार्थियों के विचारार्थ एक सवाल भी दाग दिया. यदि विधवा ब्राह्मणी की कोख से न पैदा होकर सधवा ब्राह्मणी की कोख से पैदा होते तो कबीर कया होते?
बात यहीं खत्म हो जाती तो भी कोई बात नहीं थी. विनाशकाले विपरीत बुद्धिः. वे कबीर के विचारों के संदर्भ में उस समय की सामाजिक रूढ़ियों और कुरीतियों की आलोचना पर उतर आये. फिर यूरोप में नवजागरण के मूल्यों की बात कबीर के माध्यम से मंदिर-मस्जिदों जैसी आस्था की संस्थाओं की अवमानना के रास्ते, अंधराष्ट्रवाद की आलोचना तक पहुंच गयी. स्वतंत्रता की सीमाओं के अतिक्रमण की भी कोई हद होती है.
किसी ने नसीहत के अंदाज़ में प्रश्न किया, कबीर अछूतों और दलितों के इतने ही हमदर्द थे तो धर्मतंत्रोंकी निंदा करने की बजाय उन्हें मंदिरों में प्रवेश दिलाने के लिये संघर्ष करते. अन्य धार्मिक क्रांतिकारियों ने तो यही रास्ता अपनाया है. अध्यापक महोदय फिर गौरवशाली परंपराओं की आलोचना पर उतर आए और बोले, ‘कबीर हल और वेद के अंतर्विरोध का समाधान हल चलाने वाले को वेद पढ़ने का अधिकार दिला कर नहीं करना चाहते थे. वे चाहते थे कि हल चलाने वाले स्वयं ही अपने लिए वेद के विकल्प की रचना करेँ. वे अपने समकलीन समाज सुधारकों को कहते थे कि महज उनके उत्तर ही नहीं गलत थे, बल्कि जिन प्रश्नों को वे हल करना चाहते थे, उनका गठन ही गलत था. कबीर सुधारवादी नहीं थे, क्रांतिकारी थे.’ (तभी पीछे से किसी ने फुसपुसाहट में कहा, ‘एक कबीर क्रांतिकारी थे और एक ये हैं ‘)
वह और न जाने क्या-क्या अनाप सनाप बकते यदि वही राष्ट्रवादी विद्यार्थी उन्हें बीच में ही न टोक देता. बिना किसी लाग-लपेट के उसने पूछा, ‘तब तो आपको अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण पर भी औपत्ति होगी?’ मंदि निर्माण पर आपत्ति की तो छोड़िए, इन महोदय ने तो राम को भगवान मानने पर ही आपत्ति कर दी और इस अवतारपुरुष के चरित्र की व्याख्या उन मानदंडों के आधार पर करना शुरू कर दिया जो मानवीय राजाओं के लिए बने हैं. इतना ही नहीं प्रजा का विश्वास जीतने के लिए अपनी गर्भवती पत्नी को त्यागने की घटना का ज़िक्र कर उन्हें एक नारीविरोधी निरंकुश शासक के रूप में चित्रित करने लगे. अब मामला बर्दाश्त से बाहर हो गया. उसी विद्यार्थी के नेतृत्व में कुछ विद्यार्थी, ‘देख लेंगे’ की मुद्रा में क्लास का बहिष्कार कर चले गये.
अगले दिन अध्यापक महोदय को कोर्स से इतर विषयों की पढ़ाई के लिए ‘कारण बताओ नोटिस’ मिल गयी. थोड़े ही दिनों बाद पता चला कि वे सज्जन अब अध्यापक नहीं रहे और फिर से तलाश-ए-माश में मशगूल हैं.
एक दिन चाय के अड्डे पर दिखे तो छेड़ने के अंदाज में मैंने पूछा, ‘कबीर कौन था?’ उन्होंने कबीराना अकड़ से जवाब दिया, ‘कबीर कबीर था‘.
नोटः अंतिम वाक्य मूल लेख में यही था. संपादित होकर इसकी जगह छपा था कि ‘अब आप ही बताइए इस किस्से पर हंसे या रोयें‘

सोचा जब लिखने को एक प्रेम कविता

सोचा जब लिखने को एक प्रेम कविता 
लिखने लगा विदागीत  
अनादिकाल से चली आ रही है
मिलने बिछड़ने की रीत 
हमसफर हैं हम मंज़िल-ए-आज़ादी के
मिलेंगे रास्ते कहीं न कहीं
दोस्ती बदस्तूर रहती 
तो कोई और बात थी
रहबरी मंज़िल-ए-आज़ादी भी  कुछ कम नही
इस विदा गीत में  
दुबारा मिलने की गुंज़ाइश
हो जाती है बिल्कुल खत्म नहीं
पुरानी आदतों का छूटना होता है मुशकिल
फिर अतीत तो गर्द नहीं है
उड़ जाये जो एक कविता के झोंके में 
पर पुराने रास्तों पर 
नशे सी बेख्याली में ही वापस जाऊंगा
नहीं रोक पाऊंगा जब  
अपनी विकृतियों तथा उंमादों को
जो चश्मदीद गवाह हैंं
मेरी इंसानियत के
(ईमिः 29.05.2015)

क्लारा ज़ेटकिन की कविता

क्लारा ज़ेटकिन की कवता(शिखा अपराजिता की वाल से) 

"Those who reap the crops and bake the bread are hungry.
Those who weave and sew cannot clothe their bodies.
Those who create the nourishing foundation of all culture waste away, deprived of knowledge and beauty."

का अनुवाद

भूखे रह जाते हैं वे लोग
जो खून-पसीना एक करके फसल उगाते हैं
वे भी जो भट्ठी के ताप में रोटी पकाते हैं 
नहीं मयस्सर होता उनको तन ढकने को कपड़ा
जो कपड़ा बुनते हैं
उनको भी जो सिलकर उसे वस्त्र बनाते हैं
ज्ञान तथा सौंदर्य से वंचित हो जाते हैं वे सब
रखते हैं जो बुनियाद संस्कृतियों की
वे भी जो खड़ी करते हैं उनपर अट्टालिकायें
(अनुवाद – ईश मिश्र)

Thursday, May 28, 2015

फुटनोट 33 (विवाह पुराण 2)



विवाह पुराण
आज से पूरे 43 साल पहले (उम्र 17 साल में 27 दिन कम) आज की तारीख में मेरी शादी की पूर्वसंध्या पर भत्तवान का भोज था. मैं इंटर की परी देकर घर लौटा तो शादी का कार्ड छपा मिला. मैं अवाक. कम उम्र में शादी के मेरे विरोध को कुछ शातिर बुजुर्गों ने गप्पबाजी मे प्रचारित किया कि मैं अपनी मर्जी से शादी करना चाहता हूं. दादी कार्ड छपने के बाद शादी न होने से किसी की लड़की की इज्जत का हवाला देकर रोने लगीं. मुझसे देखा न गया. राजी हो गया. तब भी लोग मेरे  ऊपर नज़र रख रहे थे कि कहीं भाग न जाऊं. लेकिन मैं तो दादी को वचन दे चुका था. उन दिनों 1 महीने पहले लगन लग जाती थी तथा बहुत से कर्मठ होते थे, मैंने उन कर्मठों में नहीं शरीक हुआ, किसी ने जिद्द भी नहीं किया. फुटनोट में टेक्स्ट को पीेछे छोड़ने की कुआदत लगता है बुढ़ापे में बढ़ जाती है. एक गांव(नाम याद नहीं आ रहा) से जाजिम ले आना था. बीहड़ के  उस गांव (छोटी नदियों के बीहड़ विकट होते हैं) में बैल गाड़ी नहीं जाती थी. ऊंट से ले अाना था. मैं ऊंट की सवारी के चक्कर में ऊंटवान के साथ चला गया. लौटने में देर होने से हंगामा मच गया था. हर किसी को दादा जी की डांट पड़ी थी कि पगला (मुझे वे इसी नाम से बुलाते थे) को जाने देने के लिये, मुझे छोड़ कर. लिख चुकने के बाद लग रहा है कि बेजरूरत लिखा गया. लेकिन अब तो लिखा गया.

जेयनयू में एक दोस्त से पूछा था कि अगर मेरी टीनेज में शादी न हुई होती तो क्या वह मुझसे शादी कर लेती. उसका 2 टके का जवाब था मुझसे दुनिया की कोई लड़की शादी न करती. हा हा
aaa

43 साल पहले, 28 मई 1972 की भत्तवान (शादी के 1 दिन पहले भात-भोज) के दिन की एक घटना पर एक पोस्ट डाला तो प्रतिक्रियायें देख ऒर चंचल भाई का कहानी पूरी करने का आदेश मान संक्षिप्त विवाह पुराण प्रस्तुत करता हूं. सबसे पहले यह बता दूं कि पांचवीं तक (उन दिनों भले घरों की लड़कियां इतना ही पढ़ती थीं) पढ़ीं सरोज जी बहुत ही समझदार तथा बेहतरीन इंसान हैं. मेरी आवारागर्दी नहीं पसंद हैं लेकिन झेल लेतीं हैं. मेरी एक अज़ीज दोस्त ने इनकी तारीफ में कहा कि she is so natural. लंबी बेरोजगारी की गर्दिश में कभी कोई शिकायत नहीं की, न बेटियों ने.

मैं जब जूनियर हाई स्कूल (8वीं) की परीक्षा उत्तीर्ण किया, बल्कि जिले में प्रथम शथान लेकर उत्तीर्ण किया तो मेरे पिता जी ने कहा कि मैं उनसे ज्यादा पढ़ लिया(उनके समय मिडिल स्कूल 7वीं तक होता था, इसलिये अपने फैसले खुद लूं. Blessing in disguise. पैदल की दूरी पर कोई हाई स्कूल नहीं था ( मिडिल स्कूल 8 किमी दूर था), तथा साइकिल पर मेरा पैर नहीं पहुंचता था. Again blessing in disguise. शहर जाने का मौका मिला तथा मैंने टीडी इंटर कॉलेज जौनपुर में दाखिला ले लिया. यह बात इसलिये बता रहा हूं कि इन 4 सालों में मेरे पिता जी कभी मिलने नहीं अाये. जौनपुर प्रवास के अंतिम वर्ष, 12वीं की परीक्षा के समय, कहीं से आते हुये पिताजी हॉस्टल मुझसे मिलने आये. मुझे आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई. न सिर्फ अनुपम में खिलाया-पिलाया बल्कि बिना मांगे 100 रुपया भी दे दिया. (देशी घी 8-10 रुपये किलो बिकती थी). मुझे क्या पता था कि मेरी शादी पक्की कर चुके थे. उसके 1-2 दिन बाद, एक दूर के रिश्तेदार मिलने आये, बेनी की इमरती खिलाने ले गये. बाद में पता चला (परीक्षा के बाद घर जाने पर) वे जनाब मेरी होने वाली पत्नी के अग्रज थे. घर पहुंचा तो अपनी शादी का निमंत्रण पत्र देख मिज़ाज गर्म हो गया.

कोई लड़का अपनी शादी के बारे में बात करे वह भी संपूर्ण नकार के साथ, इसका कोई उदाहरण नहीं था. पूरे इलाके में (आस-पास के 7-8 गांवों तथा निकटवर्ती 2-3 चौराहों पर) लोगों को चर्चा का विषय मिल गया. इस अभूतपूर्वबात पर पर विभिन्न पहलुओं से बहस होने लगी. पढ़ाई जारी रखने की इच्छा तथा कम उम्र के कारण से शादी से इंकार को कहा गया सुलेमापुर के पंडित हरिशरण का पोता अपनी मर्जी से शादी करेगा. उस वक़्त उस इलाके में अपनी मर्जी से शादी की बात अकल्पनीय थी. मैं तर्क में तो सबको पछाड़ रहा था लेकिन था तो गांव का 17 साल से कम उम्र का बालक. पिता जी ने कहा, शादी से पढ़ाई का क्या ताल्लुक वगैरह वगैरह. उन दिनों महीना पहले से लगन लगती थी लड़के को कंगन पहनाया जाता था, रोज उबटन  लगती थी. लोगों ने कहा लड़की देख लो. मैंने इन सब से इंकार कर दिया तथा घर से भागने तथा बाद की पढ़ाई की जुगाड़ के तरीके-उपाय सोचने लगा. 12वीं में 10वीं क्लास की एक लड़की को गणित का ट्यूसन पढ़ाया था, इसलिये आश्वस्त था कि कुछ-न-कुछ कर लूंगा. जिस दिन भागने वाला था, अइया(दादी) ने बुलाया. अइया से मेरे विशिष्ट रिश्ता था. छोटा भाई डेढ़-दो साल ही छोटा था इसलिये मां पर उसका ज्यादा अधिकार था और मेरा बचपन दादी के साथ ही बीता. दादी रोने लगीं. बोलीं  कि लड़की की इज्जत का मामला है. जैसे अपनी बेटी वैसे और की भी. लोग कहेंगे लड़की में कुछ कमी होगी तभी तय शादी रुक गयी. वगैरह वगैरह. मुझसे दादी का रोना नहीं देखा गया. बोला, “अइया रोवा जिन, चला कय लेब”. लेकिन under protest. मैंने शादी का जोड़ा-जामा नहीं पहना. रोज पहनने वाले कुर्ते में ही शादी किया.

उन दिनों लड़की को शादी में इतना ढक कर रखा जाता था कि सिर्फ हाथ-पांव दिखते थे. कोहबर में भी घूंघट को ही दही गुड़ खिलाया. सरोज जी ने बारात आते समय छत से मुझे देख लिया था. एक बात के बिना यह प्रकरण अधूरा रह जायेगा. शादी के दूसरे दिन को बड़हार कहा जाता था. (एक पर्याय भी था, याद नहीं आ रहा है). दोपहर के भोजन के बाद नाच-गाने की महफिल जमती थी तथा महफिल के बाद खिचड़ी की रश्म होती थी. वर अपने हमउम्र तथा कमउम्र लड़कों के साथ मंडप में बैठता था. इसमें dowry in kind का प्रदर्शन होता था. लड़के के सामने खिचड़ी रखी जाती थी. लड़का छूने में नखड़े करता. मान-मनौव्वल होती. वर पक्ष का कोई जिम्मेदार व्यक्ति प्रदर्शित सामानों का मुआयना करके, मोल-भाव से संतुष्ट होने के बाद लड़के को खिचड़ी छूने को कहता. मुझे न तो किसी चीज की चाहत थी न कोई कहने वाला. सब डरे हुये थे कि कहीं कुछ गड़बड़ न कर दे. जैसे ही खिचड़ी सामने रखी गयी, मैंने छू दिया और दोने रखी मिठाई उठाया तथा अपनी बाल मंडली के साथ मिठाई खाते टहलते जनवासा(बारात जहां ठहरी थी) आ गये. थोड़ी ही देर बाद वर-वधू दोनों पक्षों के लोग किसी गहरी चिंता में कानाफूसी करते दिखे. कोई कह रहा था लड़का मोटरसाइकिल के लिये नाराज  गया. कोई कुछ कोई कुछ और. लब्बो-लबाब यह कि लोग सोच रहे थे लड़का किसी चीज के लिये या किसी बात पर नाराज़ हो गया. मेरे हजार कहने पर लोग मान ही नहीं रहे थे. मैंने कहा चलिये फिर से बैठ जाता हूं तथा जब कहियेगा तब उठूंगा. और बालमंडली के साथ दुबारा मंडप में बैट गया. घंटा-आधा घंटा मिष्ठानादि खाते हुये महिलाओं का मधुर गीत सुनने के बाद, एक मामा की स्वीकृति के बाद, मंडप से उठा. इस तरह एक लड़की से बंध गया. जिसे न शादी के पहले देखा, न शादी में न उसके बाद 3 साल तक. इलाहाबाद विवि में पढ़ते हुये भूल गया था कि शादीशुदा हूं.

शादी का निर्णय तो मेरा नहीं था, लेकिन उसे निभाने का निर्णय मेरा था. और प्रेम का अधिकार तो विवाहितो का भी है. अपनी आवारागर्दी, उसूलों की सनक तथा विनम्र-अकड़ की प्रवृत्तियों से बिना समझौता किये, अपनी सीमों में पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाता रहा, without begging, stealing and kneeling.

मॉफ कीजिये, सालगिरह पर लिखना था लेकिन भूमिका इतनी लंबी हो गयी कि विषयवस्तु नेपथ्य में चली गयी. इलाहाबाद विवि में प्रवेश के बाद मैंने अपनी अपरिचित पत्नी को, पढ़ाई की संभावनाओं पर एक चिट्ठी लिख दिया, सालों बाद पता चला कि गवन के पहले पति के पत्र को लेकर पत्नी की काफी बदनामी हुई और वे बहुत रोयी थीं. इलाहाबाद में दीवारों पर सत्तर का दशक मुक्ति का दशक के नारे लिखते हुये 3 साल बीत गये, शादी की बात भूला हुआ था. भ्रष्टाचार विरोधी छात्र आंदोलन के दौरान पता चला कि मेरा गवन पड़ गया है. 28 फरवरी 1975. मैं अपने एक सीनियर तथा मित्र के साथ इलाहाबाद से शाहगंज पहुंचा जहां बारात मेरा इंतजार कर रही थी. अगले दिन गाड़ी(मोटर) (शादी में बैलगाड़ी गयी थी. बैलगाड़ी का फुटनोट टाल जा रहा हूं) में बगल में घूंघट में बैठी सरोज जी से रास्ते भर (लगभग 35 किमी) कोई संवाद नहीं हुआ.

घर पहुंचकर वे मुंहदेखाई में व्यस्त हो गयीं तथा मैं नदी किनारे इमली के बगीचे में अपने एकांत के आनंद में. मैं जब भी घर जाता तो उस चबूतरे पर एकांत में काफी समय बिताता. एकांत की जगहें और भी थीं, लेकिन यह प्रमुख थी. उस उम्र में क्या कुछ सोचता रहा होऊंगा कुछ याद नहीं, इतना याद है कि दिमाग कभी विराम में नहीं रहता था, विराम को भी गति देता था. सोचता हूं फुटनोट के चक्कर में न पड़ूं लेकिन पड़ ही जाता हूं. मुख्य कहानी पर वापस आता हूं. रात को भोज के दौरान ही मैं खाकर बैठक में ही सो गया. मैं कम सोता हूं लेकिन गहरी नींद. भाभी ने फुसफुसाहट में जगाने की कोशिस नाकाम होने पर झकझोर कर जगाया. तब मुझे याद आया कि वह रात सुहागरात की रात थी. एक अनजान लड़की के साथ सोने की बात अजीब लग रही थी पर वर्जनाओं से ओत-प्रोत समाज में संभोग की अनंत, वैध संभावनाओं की किशोर उत्सुकता के साथ कमरे में गया. लालटेन की मद्धम रोशनी में अपनी मखमली रजाई में मस्त सो रहीं थी. थोड़ी देर मैं इस 17-18 साल की सोती हुई लड़की की शकल निहारता रहा लड़कियों की नियति पर सोचते हुये कि जिस खूंटे से बांध दो बंध जाती थीं. लेकिन अब यह इतिहास की बात रह गयी है, नारीवादी चेतना का रथ काफी दूरी तय कर चुका है. मैंने बुलाया सरोज जी. वे जगीं नहीं. तब रजाई में घुस कर पुकारा तो बोलीं, हां. इस तरह हमारा संवाद शुरू हुआ. लेकिन दो अपरिचित लोग क्या तथा कितनी बातें करेगे, दो किशोर, उस सांस्कृतिक माहौल में जिसमें “भले” घरों की लड़कियां घर से बाहर कम निकलती हों, ज्यादा बात न करती हों, अपरिचित से तो कतई नहीं. इस तरह हमारे संबंधों की शुरुआत जिस्मानी परिचय से हुई. अगली सुबह कमरे से चाय पीने के बाद निकला और अगली रात खाने के बाद सीधे कमरे में चला गया. संय़ुक्त परिवार की महिलाओं को गप-शप का विषय मिल गया. कितना दोगला समाज था/है. सेक्स की नियंत्रित व्यवस्था के रूप में विवाह संस्थान की स्थापना हुई और बीबी के पास चुपके से आओ, चुपके से निकल जाओ. गांव के एक वरिष्ठ  उस समय की गांव की पारंपरिक शादियों के बारे में कहते थे कि खूंट(धोती का) खोलते हुये घर में घुसो, बांधते हुये निकलो. धीरे-धीरे हमारी थोड़ा बातचीत होने लगी. विषय सीमित थे. सबके सामने पत्नी से खुलेआम बात करना अच्छा नहीं माना जाता था. छुट्टी लंबी करता रहा. लेकिन जाना तो था ही. पिताजी ने मुझे सुनाकर मां से एक दिन बोले कि कहां तो शादी में नखड़े कर रहे थे, अब छुट्टी ही नहीं खत्म हो रही है, होली में मुलाकात हुई फिर आपातकाल में बेपरवाही के चलते बंद हो गया डीआईआर से छूटा मीसा में वारंट जारी हो गया. भूमिगत अस्तित्व तथा रोजी-रोटी की संभावनायें तलाशता दिल्ली आ गया और सरोज जी से अगली मुलाकात 2 साल बाद हुई, आपातकाल खत्म होने पर. यह पुराण यहीं खत्म करता हूं.

सालगिरह की पूर्व संध्या पर्याप्त शुभकामनायें मिल चुकी हैं लेकिन असली तो आज है, आज भी कुछ दे दीजिये. मैं तो सरोज जी का शुक्रगुजार हूं कि उन्होने मुझ जैसे जन्मजात आवारा को झेला आगे भी झेल लेंगी.  


Monday, May 25, 2015

जो मोह-माया से परे होते हैं

जो मोह-माया से परे होते हैं
संवेदनाओं से भरे होते हैं
मिलता जब दिल को संत्रास
होता उनको भी अवसाद
(ईमिः25.05.2015)

Sunday, May 24, 2015

कुछ लोग बेदस्तक आ जाते हैं

कुछ लोग बेदस्तक आ जाते हैं
और चले जाते हैं बेआहट
(ईमिः25.05.2015)

दस्तक

जब भी चाहो आ सकते हो ज़िंदगी में
जब चाहो जा सकते हो ज़िंदगी से
अपन को तो बस दरकार है
आने की एक हल्की दस्तक की
और जाने की अलविदा की एक मुसकराहट 
हल्की सी.
(ईमिः24.05.2015)

वह सुबह कभी तो आयेगी



कब से तो हम गा रहे हैं
वह सुबह कभी तो आयेगी
खुशियों की बयारें लायेगी
धरती आज़ादी के नग़्में गायेगी 
पर रात भयानक होती जायेगी
वह देरी जितना लगायेगी
है उस सुबह का बेसब्र इंतजार
अपना इतिहास लिखेगा जब खुद ख़ाकसार
होंगे नहीं शेरों के जब तक खुद के इतिहासकार
इतिहास करता रहेगा शिकारी की महिमा का प्रचार
और मांगता रहेगा हलवाहा वेद पढ़ने का अधिकार
आयेगी ही वह सुबह जब रौशन होगा सारा संसार
करेगा हलवाहा तब वैकल्पिक वेद रचने का विचार
इतिहास करता है सबसे एक सलूक एकसमान
खात्मा निश्चित है सबका है जो भी विद्यमान
नहीं रहेगा सदा कायम ये ज़ुल्म का निज़ाम 
होगा ही इसका भी जल्द ही काम तमाम
(ईमिः24.05.2015)

इतिहास से वंचित कर दो

इतिहास से वंचित कर दो

वह इतिहास पढ़ता है
पढ़ने तक गनीमत थी
वह सीखता भी है इतिहास से
जान सकता है
महान सम्राटों के
खून से सने गौरवशाली हाथों की हक़ीकत
उनको इतिहास से वंचित कर दो

उन्हें पढ़ाओ वेदों की महानता
कर्मकांडों की महिमा
तथा विधर्मियों के हाथों शहीद
पूर्वजों की गरिमा
पढ़ेगा का यदि वह राजनैतिक इतिहास
कर सकता है अतीत को
वर्तमान से जोड़ने का ही नहीं
भविष्य को मोड़ने का भी प्रयास
उसे इतिहास से वंचित कर दो

खतरनाक है बच्चों को पढ़ाना इतिहास
वह जान जायेगा इतिहास का सार
कि इतिहास की गाड़ी में बैक गीयर नहीं होता
मानेगा ही ऋग्वेद की ऐतिहासिक महत्ता
श्रद्धा से नमन तो करेगा
अपने अतिप्राचीन पूर्वजों को
उनके समतावादी सौंदयबोध
तथा सोमरस के सुरूर में
भौतिकवादी काव्यबोध के लिये
लेकिन समझ सकता है
वैदिक गणित-विज्ञान के अभियान की असलियत
भांप सकता है भविष्य से साज़िश की नीयत
उसे इतिहास से वंचित कर दो

कितना प्रतिगामी बनाना है बच्चों को इतिहास पढ़ाना
उन्हें पीछे नहीं आगे ले जाना है
विकास का इतिहास नहीं भूगोल पढ़ाना है
उसे चारवाकी सवालबाज नहीं
क़ॉरपोरेटी विकासबाज बनाना है
पढ़ेगा ग़र इतिहास
जान जायेगा सत्ता की साज़िशों की फेहरिस्त
और यह भी कि सब कुछ जायज है जंग-ए-तख्त में
मलुम हो जायेगी उसे अजातशत्रुओं की बातें
कि सत्ता के लिये बाप को भी बख़्शा नहीं जाता
भाइयों की लाशों पर
हुकूमत के किले बनाने वाले अशोकों-औरंगजेबों को
और मुमकिन है
वे इतिहास की वर्तमान व्याख्या शुरू कर दें
यह बहुत खतरनाक है
उसे इतिहास से वंचित कर दो

कितना खतरनाक है बच्चों को इतिहास पढ़ाना
वे जान जायेंगे
कि किस तरह करके वंचित बहुजन को
शस्त्र तथा शास्त्र के अधिकार से
ब्राह्मणवाद ने रचा जहालत का जाल
किया पेश सामाजिक जड़ता की मिशाल
फेल कर सकते हैं वे
अतीत के स्वर्णयुग की स्वर्णिम चाल
यह और भी खतरनाक है
उसे इतिहास से वंचित कर दो

अगर इतिहास पढ़ेंगे बच्चे
तो वे यह भी पढ़ेगे
कि सोने की चिढ़िया कहा जाता था भारत
इतिहास की अठारहवी शदी तक
और यह भी कि मुगलकाल में ही बना वह
अंतरराष्ट्रीय व्यापार का प्रमुख किरदार
कैसे चलेगा हजार साल की गुलामी प्रचार
यह उससे भी खतरनाक है
उसे इतिहास से वंचित कर दो

इतिहास पढ़ना इस लिहाज से भी खतरनाक है
वह यह भी जान जायेगा
कि एक ईस्टइंडिया कंपना आई थी हिंदुस्तान
मांगने व्यापार की इज़ाजत मुगल सम्राट से
मिलते ही इज़जात शुरू किया कंपनी ने तिजारती लूट
काबिज हो गयी मुल्क पर मिलते ही छूट
200 साल तक बना रहा मुल्क गुलाम
पढ़ेगा अगर वह इतिहास
लगायेगा सवालिया निशान
मेक इन इंडिया के लिये
सैकड़ों कंपनियों को दिये बुलावे पर
यह सबसे खतरनाक होगा
उसे इतिहास से वंचित कर दो.
(ईमि/24.05.2015)









Saturday, May 23, 2015

मार्क्सवाद 6

युग चेतना का उत्तम उदाहरण --  कि यही सर्वोचित व्यवस्था है हर कोई को योग्यता-श्रम के अनुसार पुरस्कृत दंडित होता है. क्या घिसी-पिटी उपमा है. परीक्षा के अकों का समान वितरण. समानता और न्याय के विचारों के विरुद्ध कामचोरी का यह कुतर्क अादिकाल से ही चला आ रहा है, चौथी सदी पूर्व अरस्तू सामूहिक संपत्ति के सिद्धांतों को नकारने के लिये वे सारे मुहावरे-किंवदंतियों का सहारा लिया. कौन नहीं काम करना चाहेगा. प्रैक्सिस मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाओं में है. मार्क्सवाद श्रम को जीवन की आत्मा मानता है. मुष्य एलीनेटेड श्रम नहीं करना चाहता जिस पर किसी और का नियंत्रण हो. साम्यवाद में एलीनेसन न होगा. सब की साझी समझ यह होगी कि निजी हित सामूहिकता में ही सर्वाधिक सुरक्षित हैं.

International Proletariat 53

Dipak Kumar Bhattacharya In absolute agreement with all the points with addition that Violence in the course of ongoing class war might become unavoidable as countervailing force to ruling class violence. The last point, "War is a murderous machine programmed by profiteers to rob and steal resources." is a historically universal. In points 9 & 10,"9. Force or power is born out of knowledge, based on materialist conception of history and an independent united organization of the conscious working class.
10. When ‘WC, IN itself’ metamorphoses to ‘working class, FOR itself’ – it’s a mini revolution" I would like to add that if that transformation -- from class-in-itself to class-for-itself takes place, not the mini but would be the full revolution. The link between the two -- the class consciousness -- is regrettably, in my estimate, is at much low level with respect to the stage of development and recurring economic crises. War patriotism has always been the refuge of scoundrels. Long way to radicalization of social consciousness. Once that happens, as Brecht beautifully wrote during those dark days that General' tank needs a human to drive and that is dangerous. The day the driver of the tank becomes dangerous for the general, will mark the beginning of working class revolution leading to human emancipation.

Friday, May 22, 2015

फुनोट 34

बुर्के की स्वेच्छा की बात गुलामी के अधिकार जैसा लगता है. गुलामी अधिकार नहीं हो सकती. रूसो ने लगभग 250 साल लिखा, "No one shall be allowed to disobey the general will, in other words, everyone shall be forced to be free". 2 वाक्यों मे कमेंट लिखने की सोचा लेकिन बड़ा होने का खतरा लग रहा है. ग्राम्सी का वर्चस्व का सिद्धांत पढ़ना चाहिये इन लोगों को. को समान रूप से प्रभावित करती है. बाप रे, वक्त कितना तेज भागता है. 25 साल पुरानी बात हो गयी. महिलाओं की स्थिति तथा कानून पर सेमिनार था. नारी सशक्तीकरण का प्रोजेक्ट में सक्रिय 2 नामी नारीवादियों ने समुदाय में काम करने के अनुभव के हवाले से इस स्वेच्छा की हिमायत कर कहीं थी. मैंने फौरी प्रतिक्रिया में कह दिया था कि आइये तब हम उनके गुलामी के अधिकार के लिये लड़ें. मेरी इस बात से कई लोग नाराज हो गये थे. सांस्कृतिक भवन की बुनियाद गहरी है, भवन में दरारें पड़ रही हैं, इन दरारों को चौड़ा करते हुये अौर दरारें पैदा करनी हैं. पैदा होते ही लड़कियां स्वेच्छा से बेड़ियों को आभूषण मान लेती हैं. सत्ता के सारे विचारधारात्मक-सांस्कृतिक औजारों के सब प्रतिरोधों के बावजूद, आज़ादी शब्द के जादू के असर से वे कब तक बचेंगीं. पादेब को आभूषण मानने से इंकार करने वाली लड़कियों की तादाद बढ़ रही है. कॉलेज तो आने दो, बुर्का खुद-ब-खुद गायब हो जायेगा. जर्जर हो रहा हजारों साल पुराना मर्यदवाद का यह सांस्कृतिक वन ध्वस्त होने की कगार पर है, लगातार चोट करते रहो. सारे ही धर्म मर्दवादी हैं.मैंने तो शादी के वक्त पत्नी की शकल ही नहीं देखा था, दही-गुड़ भी घूंघट को ही खिलाया था. शादी के तीसरे साल में गौना आने पर लालटेन की रौशनी में पहली बार उनका दीदार किया. ये अब क्रमशः43 तथा 40 साल पुरानी बाते हुईं. तब से बात बहुत आगे बढ़ चुकी है. नारीवादी प्रज्ञा तथा दावेदारी का रथ लंबी दूरी तय कर चुका है, मुक्ति की मंजिल अभी दूर है, पड़ाव-दर-पड़ाव बढ़ते रहना है. आपकी (नीलिमादि की) और उससे छोटी लड़कियों को कहता हूं कि बेटी तुम लोग भाग्यशाली हो कि 1-2 पीढ़ी बाद पैदा हुई.लेकिन तुम्हारे अधिकार-अाज़ादी खैरात में नहीं मिली है. पिछली पीढ़ियों के निरंतर संघर्ष का नतीजा है. पैदा होते ही पिलाई जाने वाली घुट्टियों का दूरगामी असर रहता है.

The triumphant soldier

The triumphant soldier

Its not so long ago when I met this triumphant soldier
and now meeting him again after 40 years
but memories are still fresh
yet 40 years is not so a small span
meeting a war hero from the own place
whose name was heard on the All India radio
for his heroic acts
The victorious soldier
who by his strategy and war skill
had ruthlessly slaughtered hundreds of enemies
whom he had no enmity with
Even today he is holding the same medal on his chest
but does not exactly remember now
whether it is PARAM, MAHA or just VEER Chakra 
(medal of Supreme hero, great hero or just the hero)
He was not unhappy with life
just little worried
worried about the running around
for the widow pension of his daughter-in-law
the wife of his martyred son
who became a martyr without fighting a war
but fighting the snow storms at the NEFA's Himalayan heights
the widow of that son
who joined the army on father's foot step
that is what most parents want
he feels now that children must not be shown just the traveled paths
but must be encourage to invent the new one
The widow of his that son
whose children are proud of his martyrdom
but the cries of the stomach overshadow the pride
they seek just one blessing from all the Gods
-- the clearance of their mother's widow pension
But the triumphant soldier manages the family with his pension
Passing the time too is not a problem for him
he keeps remembering the faces of the victims of his war heroism
the enemies whom he killed with impunity
he remembers the faces of unknown enemies
whom he had nothing against
But the boss had told that they are the nation's enemies
And the enemy has no human rights
In the same way as the soldier has no right of non-compliance
To define and identify the enemy is not the prerogative of the soldier
But the task of all knowing all mighty high command
the product of its intense knowledge of enemy-ethics
But this time when he began to talk about the triumph
The lines of pride had become invisible
or were covered and concealed under the wrinkles of the guilt conscience
Even the slain enemies were looking humans
Spoke with an air of wisdom
That though it was no use saying now
that he should not have killed the enemies
The enemies who he had no enmity with
But he would certainly tell this to the children of his martyred son
And also tell them that soldier never wins
As long as the enemy is identified by the rulers
He shall triumph only when he identifies his own enemy.
[Ish Mishra/22.05.2015]