Wednesday, April 29, 2015

संस्कार (संपादित)

पल रहे थे मेरे अंदर मंदिर की शह पर 
सदियों पुराने जो संस्कार
बोझ  से सर पर पूर्वजों की लाशों के
बोझ तो फिर बोझ ही होता है
उतार देना चाहिये जल्दी-से जल्दी
मैंने तो जला दिया था विरासत में मिले संस्कारों को
तीन धागों के जनेऊ के साथ
सनद थी जो मेरी जीववैज्ञानिक संयोग के पहचान की
जाति छोड़ कुजात हुआ
जाति बिना वैदिक धर्म कहां
तलाश-ए-इल्म में पकड़ी जब सुकराती राह
करता रहा सवाल-दर-सवाल और तलाश-ए-जवाब
मिला नहीं जब जवाब खुदा की खुदाई का
हो गया मुक्त भय से भूत और भगवान के
महसूस किया सुख नास्तिकता के साहस का
संस्कारों के बोझ तले जिंदगी खींचते अभागे 
सहानुभूति के पात्र हैं, कोप के नहीं
(ईमिः 29.04.2015)

5 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 30 - 04 - 2015 को चर्चा मंच चर्चा - 1961 { मौसम ने करवट बदली } में पर दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. एक सोच यह भी...बहुत सुन्दर..

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  3. सच क्या है ये पता तो नहीं ... पर अपनी खुद की सोच रखती लाजवाब रचना ... ...

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    1. शुक्रिया, दिगंबर जी. फेसबुक पर फेसबुक पर एक पोस्ट पर किसी ने लिखा कि मंदिर नहीं रहेंगे तो लोगों में संस्कार कैसे पैदा होंगे. उसी पर यह कमेंट लिखा गया था. वैसे जीने का मकसद सिर्फ जीना नहीं बल्कि सार्थकता के साथ जीना. और यह तभी संभव है जब हम खुद पर सवाल करें तथा व्यक्तित्व की संस्कारगत विसंगतियों को दूर करें. शिक्षा का मक्सद बिसराना(unlearning) भी है महज सीखना (learning) ही नहीं. दुर्भाग्य से ज्यादातर लोग तोता शैली में सीखकर पीयचडी कर लेते हैं लेकिन unlearning की प्रक्रिया को दूर रखते हैं तथा प्रोफेसर बन जाने के बावजूद औरत-मर्द; हिंदू-मुसलमान; ब्राह्मण-भूमिहार; ....... से इंसान नहीं बन पाते.

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