लाल सलाम
साथी हबीब जालिब
पिछली
सदी के मीर-ओ-ग़ालिब
पेश
की जो बेइजाज़त लिखने की मिशाल
हो
गया तारीख के ज़ालिमों का बुरा हाल
डाल
लेते हैं जो मुशाहिदी की आदत
भूल ही
जाते हैं लिखना हर्फ-ए-सदाकत
नहीं
है इन नाइंसानों से अपनी अदावत
फहराते
रहेंगे सदा परचम-ए-बगावत
ताकत
है हमारी आपके नक्श-ए-कदम
नहीं
डरेंगे कभी सत्ता के हथियारो हम
होती
है जब भी ज़ुल्म से लड़ने की दरकार
सुनाई
देता ज़ुल्मत को ज़िया कहने से इंकार
जब भी
सुनाई देता है निजामों का युद्धोंमाद
सच
दिखती खतरा-ए-निज़ाम-ए-जर की बात
जंगखोर
फैलाता युद्धोंमाद का पैगाम
बरकरार
रहे ताकि हरामखोरों का निज़ाम
अमन-ओ-चैन
का पैगाम देगा जब आवाम
बंद
हो जायेगी जंगखोरों की दुकान
होंगे
हिंदुस्तान-ओ-पाकिस्तान तब दोनों हमारे
उखड़
जायेंगे दोनों मुल्कों से जब अमरीकी डेरे सारे
सारी
जमीनें होंगी आवाम की
उखड़
जायेंगी जड़े ज़र के निज़ाम की
न
होगा कोई हिंदू न मुसलमान
बसेंगे
तब यहां निखालिस इंसान
दिखेगा
आफताब तब निखालिस आफताब सा
न कि
मुल्ले के अमामा या बनिये के किताब सा
लिखते
रहेंगे तराने जंग-ए-आज़ादी के लगातार
कर ले
ज़ाल्म चाहे ज़ुल्म की सारी हदें पार
जब भी
होगी मेरा कलम तोड़ने की बात
और भी
बुलंद जायेगी इसकी आवाज़
बा-इज़ाजत
करना चाहे वो जो मेरी ज़ुबान
ज़ज़्बात-ए-बगावत
भरेंगे और ऊंची उड़ान
आता है
जब भी दमन का संकट भारी
बनती है
संबल आपकी शायरी हमारी
“होते
हैं तो हो लें हाथ कलम, शायर न बनेगा दरबारी“
किया एक
तानाशाह ने सुपुर्द-ए-ज़िंदान
रोक न
सका वो कलम की ऊंची उड़ान
याद है
फ़नकारों के नाम आपका पैगाम
ज़ुल्मत
पर न करेंगे कभी फ़न कुर्बान
करूंगे
निज़ाम-ए-ज़र पर वार लगातार
पहुंच
जायें थाने क्यों न सारे ज़रदार
नहीं
लिखूंगा शिना कभी इबलीसनुमा इंसानों की
पढूंगा
कसदे महकूमों मज़लूमों खाकनशीनों की
चलता
रहूंगा आपके कंटीले नक्श-ए-कदम पर
होलें
चाहे हाथ क़लम बिकेगा नहीं ज़मीर मगर
(हबीब
जालिब से थोड़ी-बहुत चोरी के साथ)
(ईमिः
14. 04.2014)
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