Tuesday, April 28, 2015

यूटोपिया (संपादित)

वक़्त से पीछे चलता पोंगापंथी
साज़िश रचता है भविष्य कि विरुद्ध
करके स्थापित महानताएंं किसी कल्पित अतीत में
करता नीलाम मुल्क पहनकर राष्ट्प्रेम का मुकुट
क़ाफिर करार देता है उस हर उस दानिशमंद को 
करता जो सवाल इतिहास के इस घृणित बलात्कार पर
जारी कर देता है फतवा बन इस या उस खुदा का दलाल
मगर इतिहास गवाह है
जब भी सत्य के तर्क पर भारी पड़ा है पोंगापंथी बहुमत का कुतर्क 
हो जाता है उस समाज का निश्चित बेड़ा गर्क
हुआ था ऐसा ही कुछ प्राचीन यूनान में
दब गया था सुकराती तर्क कुतर्क के बहुमत के शोर में
सुकरात ने पिया सत्य के लिये गरल 
और बना दिया आने वाली पीढ़ियों के लिये सत्य का संकल्प सरल 
सुकरात को तो मार डाला उंमादी एथेंस ने
पर बच न सका सिकंदरी युद्धोंमाद से
गैलेलियो भी वक्त से आगे थे सिकंदर की तरह
धर्मोंमाद ने मार दिया उन्हें भी
नहीं जान पाता पोंगापंथ इतिहास की हक़ीक़त
बढ़ जाती है शहादत से विचारक की ताकत

 नासमझों का हुजूम, भेड़ सा चलता है वक़्त के साथ
न आगे न पीछे
मान कर नियति मौजूदा हालात को 
बिताता है ज़िंदगी निजांम की जर्जर मशीन के पुर्जों की तरह
बन जाता है अनजान प्रतिधरोक प्रगति का
ओढ़कर विकल्पहीनता की चादर
ये न व्यवस्था के साथ होते हैं न खिलाफ
ढोते हैं अपना ही बेवज़ूदी का अपना वजूद
दौड़ते हैं रथ के पीछे
सोचते हैं रथ इन्ही के सहारे चल रहा है
इन्हें कभी कभी कहीं कहीं मध्यवर्ग कहा जाता है 
सेवक हैं सत्ता के पालते हैं शासक होने का मुगालता
ये गोरख के "समझदारों का गीत" के नायक होते हैं
जो चाय के प्याले में तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
चुप्पी का मतलब समझते हैं
और आज़ादी के खतरों से बाल-बाल बचत जाते हैं
इतराते हैं ग़ालिब के शह के मुसाहिदों की तरह
खुद को समझते हैं लीडर अजीमुस्सान
हबीब जालिब के फिरंगी के दरबान की तरह
जैसे ही चलती है बात लहूलुहान नज़ारों की
दूर जाकर बैठते हैं दुष्यंत के शरीफ लोगों की तरह
इन्हें वे लोग लंपट बुर्ज़ुआ कहते हैं  
जो खुद को वक़्त से आगे मानते हैं

वक्त से आगे रहता है युगद्रष्टा 
देखता है सपने एक नई दुनियां के
जहां मेहनत की लूट न हो हरामखोरी की छूट न हो
जानता है यह वैज्ञानिक सत्य 
कि जिंदा कौमें कभी विकल्पहीन नहीं होती
विकल्हीनता मुर्दा कौमों की निशानी है
बनाता है नक्शा एक सुंदर विकल्प का
होता है जिसमें शोषण मुक्त दनिया का वैकल्पित निजाम
वे लोग चिल्लाते हैं यूटोपिया यूटोपिया 
जानते नहीं जो नियम इतिहास के गतिविज्ञान का

मिलता नहीं अंजाम जब तक किसी बात को 
लोग उसे हवाई महल या यूटोपिया कहते हैं
1917 के अक्टूबर तक सोच नहीं सकता था कोई
बात उन 10 दिनों की हिल गई थी दुनिया जिससे
यूटोपिया थी मजदूर क्रांति की बात तब तक
यूटोपिया थी यह बात 1950 के दशक में
कि कोई अश्वेत बन सकता है अमेरिकी राष्ट्रपति
उतार दिया गया था जब बस से रोज़ा पार्क को 
गोरे को सीट न देने के लिये
नायिका बनी जो नागरिक अधिकार अांदोलन की
यूटोपिया होता यह ख्याल उस समय
कि दफनाई जायेगी वह जॉर्ज वाशिंगटन की कब्र की बगल में
यूटोपिया होता कहना हमारे बचपन में
हुक्मरान होना एक दलित महिला का 
और उसके चरणचुंबन करते उन लोगों की बात
जो पैदा हुये थे ब्रह्मा के शरीर के श्रेष्ठ अंगों से ने  
यूटोपिया लगती है सच की तूती की बात 
क्योंकि हम इतिहास के उस अंधे मोड़ पर हैं
जब झूठ का कुतर्क सच के तर्क पर पर 20 पड़ता दिख रहा है
मगर जानता है वह इतिहास का यह वैज्ञानिक सत्य  भी
 कुछ भी स्थाई नहीं होता परिवर्तन के सिवा
और है जो भी अस्तित्ववान निश्चित है अंत उसका
अपवाद नहीं है झूठ का निज़ाम भी 
आयेगा ही वह वक़्त 
जब ज़ुल्म के माते लब खोलेंगे
मान मशविरा फैज़ का जब उट्ठ बैठेगा खाकनशीं
तब तख्त गिराये जायेंगे और जलेगी ताजों की होली
जब जागेगा मज़दूर किसान
लायेगा ही नया विहान 
तब सच की तूती बलेगी अौ झूठ लताड़ा जायेगा
औ साम्राज्यवाद का मर्शिया पढ़ा जायेगा
सपना हक़ीकत बन जायेगा
यूटोपिया सच हो जायेगा
है जो वक़्त से आगे
वही युग पुरुष कहलायेगा
(ईमिः27.04.2015)

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