जमाने में क्या रक्खा है?
ईश मिश्र
जो कहता है जमाने में क्या रक्खा है?
वह इसकी चका-चौंध से हक्का-बक्का है
बहुत कुछ रक्खा है जमाने में ऐ दोस्त
बच सको गर होने से उन्माद मैं मदहोश
दिखते हैं जिसे इस छोर से उस क्षितिज तक
सिर्फ़ बादल
हो गया है वह बेबस, होकर क्षणिक प्यार में पागल
ढलते दिन से जो मायूस हो जाते हैं
कल की सुंदर सुबह से महफूज़ रह जाते हैं
हो जाती जिसकी दुनिया की आबादी महज एक
समझ नहीं पाते वे विप्लव के जज़्बे का
विवेक
उल्फते अपने आप ढल जाती हैं
मुहब्बत एक से जब मुहब्बत-ए-जहाँ में मिल जाती
[२०११]
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