कई होते हैं. लेकिन जो लोग अपने जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर नहीं उठ पाते उन्हें इंसान मानाने में दिक्कत होती हैं. बहुत से ब्राह्मण एवं एनी जातियों में पैदा हुए लोग भी आजीवन इंसान नहीं बन पाते. भूमिहारों में यह प्रवृत्ति ज्यादा दिखाई देती है. जे.एं.यु. के एक ग्रुप में कई लोगों को मैं नहीं जनता था कि भूमिहार हैं, क्योंकि भूमिहार सिंह/सिन्हा/मिश्र/.. आदि हर उपनाम लिख लेते हैं. मुखिया के मातम पर मचे कुहराम पर मैंने एक लिंक पोस्ट किया तो १०-१२ लोग उस पोस्ट पर कोहराम मचा दिए कि मुखिया जी जैसी संत को अपराधी क्यों कह दिया, उसकी कुत्ते से तुलना करने के लिए कुत्तों से माफी भे मांग लिया फिर भी कोहराम नहीं रुका और मजबूरन मुझे वह मंच छोड़ना पड़ा और मंच भी टूट गया. तभी पता चला कि वे भूमिहार हैं.बचपन से आजतक के अनुभव में कुछ भूमिहार इंसान भी बने मिले, लेकिन ज्यादातर भूमिहार ही बने रहे.
१९७२ में मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया तो उस हास्टल के दबंग सीनियर भूमिहार थे. एक ने पूंछा तुम हमलोगों वाले मिश्र हो, मैंने मासूमियत में हान कह दिया और रैगिंग से बचता रहा लेकिन जब उन्हें पता चला मैं भूमिहार नहीं हूँ तो वही लोग मेरे दुश्मनाँ बामन गए, लेकिन तब तक मैं भी सीनियर हो चुका था.
इन सब का सम्मान करता हूँ. सौभाग्य से इनमें से कुछ से व्यक्तिगत परिचय का भी लाभार्थी हूँ, ये अपने सामाजीकरण के चलते बेहतरीन इंसान बने. राज नारायण जी से १९७४ के आंदोलन में परिचय हुआ और उनके अंतिम दिनों तक चला. ब्रह्मानंद जी को शायद आप जानते हों. मेरे कई अभिन्न मित्र भी जन्मना भूमिहार हैं, प्रोफ़ेसर आनंद कुमार को शायद आप जानते होंगे. इसी लिए मैंने सामान्यीकरण नहीं किया. मैं भी जन्म और संस्कारों से से ब्राह्मण ही था १३ साल में जनेऊ तोड़ने के साथ संसकारों की बलि शुरू किया और १७-१८ की उम्र तक ब्राह्मणत्व के सारे संस्कारों का हवं कर दिया और मेरे अंदर का पंडित जी स्वाहा हुआ. मेरे खानदान में कई लोग अभी तक ब्राह्मण से इंसान नहीं बनम पाए हैं, लेकिन शायद अल्प-संख्या के नाते या जो भी कारन हों, व्यक्तिगत अनुभव में ज्यादातार परिचित भूमिहार से इंसान नहीं बन पाए. दिल्ली विश्विद्यालय का कुलपति इसका ज्वलंत उदाहरण है. विश्व्विद्युआलय में इतने भूमिहार नहीं हैं इसलिए उसने कुछ पदों पर कुछ गैर भूमिहारों को भी नियुक्त कर दिया.
nd @Akhand pratap rai: मैंने कहा ण कि आप कहाँ पैदा होई गए इसमें ण आपका योगदान है ण अपराध, उसके लिए ण शर्म की जरूरत है न गर्व की. कहीं भी पैदा होनेव के बावजूद इतिहास को आप कैसे समझते हैं यह महत्वपूर्ण है. मुझे अपने जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता में कोइ शर्म या गर्व नहीं है लेकिन हकीकत है कि ब्राह्मणवाद ने इस मुल्क को तबाह करने में कोइ कसार नहीं छोड़ा, उसे उसे स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए. मैंने कहा न कि मेरे कई अभिन्न मित्र जन्मना भूमिहार हैं, जनमत के संपादक राम जी राय समेत. मेरे सबसे प्रिय शिक्षक (मिडिल स्कूल के) राम बदन राय हैं जब भी घर जाता हूँ ३५-४० किमी मोटर साइकिल चलाकर उनके दर्शन करने जरूर जाता हूँ, दोनों एक दूस्दारे से मिलकर गद्घाद हो जाते हैं. मेरी एक अभिन्न मित्र भी जन्मना भूमिहार हैं. लेकिन यह त्रासदी है कि व्यक्तिगत अनुभव में ज्यादातर भूमिहार जातीय अस्मिता से ऊपर नहीं उठ पाते, शायद यह मेरा दुर्भाग्य होगा कि ऐसे लोगों से मिलना हुआ. अन्य जातियों में भी यह प्रवृत्ति है. इसी लिए मैं जनरलाइज नहीं कर रहा हूँ और ज्यादातर लिखा. मेरी दिली खाहिश है कि मैं गलत साबित हो जाऊं. मैं तो अपने मित्रों की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता जानने का प्रयास ही नहीं करता जब तक लोग खुद न जाहिर कर दें. मैंने बताया न कि क्यों मिश्र से बिना मोह के भी जोड़े हूँ. एक तो पूरे नाम की पहचान यही है. बात मोदी से न्बिकलकर गलत दिशा में चली गयी जिसमें अपने भूमिका के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ. मोदी मुखिया से बड़ा नर-पिशाच है.
मित्र आपने बिलकुल वही बात कहा जो मैं कह रहा हूँ, बस तरीके में फर्क है. मैंने भी यही कहा था शायद अल्पसंख्या के चलते भी यह प्रवृत्ति हो. मेरी कोशिस होती है वे इस अल्पमत के सिंड्रोम से निकलें. मेव्रे कुछ विलक्षण विद्यार्थी भी जन्मना भूमिहार रहे हैं. मुझे ज्यादातर नहीं कहना चाहिए था बल्कि यह कहना चाहिए था कि मेरे निजी परिचय के ज्यादातर. इस गलती के लिए क्ष्गामा-प्रार्थी हूँ और अब वक्तव्य देने में शब्दों के चुनाव में सतर्कता बरतूँगा. ध्यान दिलाने के लिए आपका आभारी हूँ. मुझे लगता है कि पढ़-लिख कर भी इंसान कैसे इस कुतार्किक अस्मिता से इतना चिपक सकता है.
`@बी. कामेश्वर राव: मुझे जो जानते हैं, वे जानते हैं मैं क्या हूँ और मुझे किसी के सनद की जरूरत नहीं है. जी नहीं यह शर्म की अनुभूति नहीं है महज निरपेक्ष भाव से इतिहास समझने का प्रयास बात मात्र. मैंने पहले ही कह दिया कि जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घना में किसी का कोइ योगदान नहीं है इसलिए उसमें शर्म और गर्व की कोई बात नहीं है. मुझे ब्राह्मण शब्द या ब्राह्मण व्यक्ति से कोई नफ़रत नहीं है. हमारे पूर्वज ब्राह्मण इसलिए थे की उनके पूर्वजों ने जो पाखण्ड गढ़ा समाज को वर्गों में बांट कर ब्रह्मा नामक अवधारणा पर उसकी जिम्मेदारी डालकर, बौद्धिक संसाधनों की सुलभता के बावजूद उस पाखंड को तोड़ने की बजाय शासक-वर्गों के हित में मजबूत करते गए. आपकी बात वैसी है जैसे तमाम धर्मावलम्बी कहते पाए जाते हैं की नास्तिक सबसे बड़ा आस्तिक है. ब्राह्मणवाद कोइ जीववैज्ञानिक गुण नहीं है बल्कि एक विचारधारा है जिसके वर्चस्व के चलते हजारों साल तक समाज का मेहनतकश बहुमत और नारियां शास्त्र और शस्त्र से सदइयों वंचित रहा. मेरी लड़ाई ब्राह्मण से नहीं बल्कि ब्राह्मणवाद की विचारधारा से है. वैसे एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण पृष्ठभूमि के संस्कारों से नास्तिकता तक की यात्रा कठिन आत्म-संघर्षों की यात्रा बहुत सरल नहीं रही. ज्यादातर लोग इस कठिन काम से बचते हैं और आजीवन जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता ढोते रहते हैं. फिलहाल अभी इतना ही, अन्यान्य प्रकरणों में यह विमर्श जारी रहेगा.
१९७२ में मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लिया तो उस हास्टल के दबंग सीनियर भूमिहार थे. एक ने पूंछा तुम हमलोगों वाले मिश्र हो, मैंने मासूमियत में हान कह दिया और रैगिंग से बचता रहा लेकिन जब उन्हें पता चला मैं भूमिहार नहीं हूँ तो वही लोग मेरे दुश्मनाँ बामन गए, लेकिन तब तक मैं भी सीनियर हो चुका था.
इन सब का सम्मान करता हूँ. सौभाग्य से इनमें से कुछ से व्यक्तिगत परिचय का भी लाभार्थी हूँ, ये अपने सामाजीकरण के चलते बेहतरीन इंसान बने. राज नारायण जी से १९७४ के आंदोलन में परिचय हुआ और उनके अंतिम दिनों तक चला. ब्रह्मानंद जी को शायद आप जानते हों. मेरे कई अभिन्न मित्र भी जन्मना भूमिहार हैं, प्रोफ़ेसर आनंद कुमार को शायद आप जानते होंगे. इसी लिए मैंने सामान्यीकरण नहीं किया. मैं भी जन्म और संस्कारों से से ब्राह्मण ही था १३ साल में जनेऊ तोड़ने के साथ संसकारों की बलि शुरू किया और १७-१८ की उम्र तक ब्राह्मणत्व के सारे संस्कारों का हवं कर दिया और मेरे अंदर का पंडित जी स्वाहा हुआ. मेरे खानदान में कई लोग अभी तक ब्राह्मण से इंसान नहीं बनम पाए हैं, लेकिन शायद अल्प-संख्या के नाते या जो भी कारन हों, व्यक्तिगत अनुभव में ज्यादातार परिचित भूमिहार से इंसान नहीं बन पाए. दिल्ली विश्विद्यालय का कुलपति इसका ज्वलंत उदाहरण है. विश्व्विद्युआलय में इतने भूमिहार नहीं हैं इसलिए उसने कुछ पदों पर कुछ गैर भूमिहारों को भी नियुक्त कर दिया.
nd @Akhand pratap rai: मैंने कहा ण कि आप कहाँ पैदा होई गए इसमें ण आपका योगदान है ण अपराध, उसके लिए ण शर्म की जरूरत है न गर्व की. कहीं भी पैदा होनेव के बावजूद इतिहास को आप कैसे समझते हैं यह महत्वपूर्ण है. मुझे अपने जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता में कोइ शर्म या गर्व नहीं है लेकिन हकीकत है कि ब्राह्मणवाद ने इस मुल्क को तबाह करने में कोइ कसार नहीं छोड़ा, उसे उसे स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए. मैंने कहा न कि मेरे कई अभिन्न मित्र जन्मना भूमिहार हैं, जनमत के संपादक राम जी राय समेत. मेरे सबसे प्रिय शिक्षक (मिडिल स्कूल के) राम बदन राय हैं जब भी घर जाता हूँ ३५-४० किमी मोटर साइकिल चलाकर उनके दर्शन करने जरूर जाता हूँ, दोनों एक दूस्दारे से मिलकर गद्घाद हो जाते हैं. मेरी एक अभिन्न मित्र भी जन्मना भूमिहार हैं. लेकिन यह त्रासदी है कि व्यक्तिगत अनुभव में ज्यादातर भूमिहार जातीय अस्मिता से ऊपर नहीं उठ पाते, शायद यह मेरा दुर्भाग्य होगा कि ऐसे लोगों से मिलना हुआ. अन्य जातियों में भी यह प्रवृत्ति है. इसी लिए मैं जनरलाइज नहीं कर रहा हूँ और ज्यादातर लिखा. मेरी दिली खाहिश है कि मैं गलत साबित हो जाऊं. मैं तो अपने मित्रों की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता जानने का प्रयास ही नहीं करता जब तक लोग खुद न जाहिर कर दें. मैंने बताया न कि क्यों मिश्र से बिना मोह के भी जोड़े हूँ. एक तो पूरे नाम की पहचान यही है. बात मोदी से न्बिकलकर गलत दिशा में चली गयी जिसमें अपने भूमिका के लिए क्षमा-प्रार्थी हूँ. मोदी मुखिया से बड़ा नर-पिशाच है.
मित्र आपने बिलकुल वही बात कहा जो मैं कह रहा हूँ, बस तरीके में फर्क है. मैंने भी यही कहा था शायद अल्पसंख्या के चलते भी यह प्रवृत्ति हो. मेरी कोशिस होती है वे इस अल्पमत के सिंड्रोम से निकलें. मेव्रे कुछ विलक्षण विद्यार्थी भी जन्मना भूमिहार रहे हैं. मुझे ज्यादातर नहीं कहना चाहिए था बल्कि यह कहना चाहिए था कि मेरे निजी परिचय के ज्यादातर. इस गलती के लिए क्ष्गामा-प्रार्थी हूँ और अब वक्तव्य देने में शब्दों के चुनाव में सतर्कता बरतूँगा. ध्यान दिलाने के लिए आपका आभारी हूँ. मुझे लगता है कि पढ़-लिख कर भी इंसान कैसे इस कुतार्किक अस्मिता से इतना चिपक सकता है.
`@बी. कामेश्वर राव: मुझे जो जानते हैं, वे जानते हैं मैं क्या हूँ और मुझे किसी के सनद की जरूरत नहीं है. जी नहीं यह शर्म की अनुभूति नहीं है महज निरपेक्ष भाव से इतिहास समझने का प्रयास बात मात्र. मैंने पहले ही कह दिया कि जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घना में किसी का कोइ योगदान नहीं है इसलिए उसमें शर्म और गर्व की कोई बात नहीं है. मुझे ब्राह्मण शब्द या ब्राह्मण व्यक्ति से कोई नफ़रत नहीं है. हमारे पूर्वज ब्राह्मण इसलिए थे की उनके पूर्वजों ने जो पाखण्ड गढ़ा समाज को वर्गों में बांट कर ब्रह्मा नामक अवधारणा पर उसकी जिम्मेदारी डालकर, बौद्धिक संसाधनों की सुलभता के बावजूद उस पाखंड को तोड़ने की बजाय शासक-वर्गों के हित में मजबूत करते गए. आपकी बात वैसी है जैसे तमाम धर्मावलम्बी कहते पाए जाते हैं की नास्तिक सबसे बड़ा आस्तिक है. ब्राह्मणवाद कोइ जीववैज्ञानिक गुण नहीं है बल्कि एक विचारधारा है जिसके वर्चस्व के चलते हजारों साल तक समाज का मेहनतकश बहुमत और नारियां शास्त्र और शस्त्र से सदइयों वंचित रहा. मेरी लड़ाई ब्राह्मण से नहीं बल्कि ब्राह्मणवाद की विचारधारा से है. वैसे एक कट्टर कर्मकांडी ब्राह्मण पृष्ठभूमि के संस्कारों से नास्तिकता तक की यात्रा कठिन आत्म-संघर्षों की यात्रा बहुत सरल नहीं रही. ज्यादातर लोग इस कठिन काम से बचते हैं और आजीवन जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता ढोते रहते हैं. फिलहाल अभी इतना ही, अन्यान्य प्रकरणों में यह विमर्श जारी रहेगा.
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