इकबाल
ईश मिश्र
इश्क-ए-महबूब ने कर दिया कुंद इश्क-ए-जहां की धार
गम-ए-जुदाई ने कर दिया गम-ए-जहां को तार तार
खो गए गम-ए-दिल में और कट गए गम-ए-जहां से
फिर भी मिलती रहीं दुआएं
इज्जत और प्यार से
झुक कर दुहरा हो गया हूँ
दुआ-ओ-प्यार के बोझ से
बौना सा दिखने लगा दबकर
अपने अपराधबोध से
खुश थे बहुत मिलने से पहले
इस बेवफा यार से
पुलकित होते थे पूरी दुनिया
से अपने प्यार से
लिखते थे एक नई दुनिया के
ख़्वाबों के तराने
लिखने लगा एक लड़की के मुहब्बत-ओ-जुदाई
के अफ़साने
मरने लगे सपने एक सुन्दर
समाज के
कुंद होने लगे थे नारे
इन्किलाब जिंदाबाद के
पड़ा जब पीठ पर बेवफा रुसवाई की लात
याद आयी फिर मकसद-ए-ज़िंदगी
की बात
गर दिमाग पर भारी पडेगा दिल
का सन्देश
लिजलिजा हो जाएगा कविता का
परिवेश
बनेगी गज़ल अब हिरावल दस्ते
की हरकारा
मेहनतकश के साथ लगायेगी
इन्किलाबी नारा
भूल जायेगा भविष्य नगमे एक
लड़की से प्यार के
याद रखेगा गज़लें गम-ए-जहां
के इजहार के
[Wednesday,
April 17, 2013/11:28 PM]
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