जो दोस्त है अपना
इतना करीब
कैसे बन सकता है मेरा रकीब?
कहा निभाया है उसने फ़र्ज़-ए-दोस्ती
फ्रायड की हवाओं से बचाया महबूब की हस्ती
फ्रायड की हवाओं से बचाया महबूब की हस्ती
मगर यह दोस्त है कुछ
इतना अजीज़
और माशूक भी है तो अमूल्य पर नहीं कोई चीज
और माशूक भी है तो अमूल्य पर नहीं कोई चीज
फिर सोचता हूँ इश्क
का होता नहीं कोई स्थायी अनुबंध
है यह थोडी दूर की सहयात्रा का पारस्परिक प्रबंध
है यह थोडी दूर की सहयात्रा का पारस्परिक प्रबंध
नहीं है मुहब्बत सनद
किसी साश्वत बंदगी की
महबूब भी है एक हमसफ़र
सफर-ए-ज़िंदगी की
चलते हैं कुछ दूर
साथ और बिछड जाते हैं
हुआ अगर संयोग तो
फिर कभी मिल पाते हैं
रह जाती हैं
सहयात्रा की कुछ यादें साथ
उन अंतरंग क्षणों की मोहक याद
उन अंतरंग क्षणों की मोहक याद
हर वियोग देता है
अवसाद अजीब
कितना भी अज़ीज़ क्यों
न हो रकीब
विवेक को दीजिए तरजीह
जज्बात पर
होने न पाए दिल का संवेग हावी दिमाग पर
होने न पाए दिल का संवेग हावी दिमाग पर
वैसे भी नहीं है
प्यार कोई कुदरती इबादत
यह तो है दो दिलों
के पारस्परिक मेल की आदत
महबूब हो किसी को
कितना भी अज़ीज़
दिमागदार इंसान है नहीं
किसी की चीज़
अधिकार है उसका ही
अपने व्यक्तित्व पर
उठा नहीं सकते उंगली
उसके स्वतन्त्र अस्तित्व पर
कर लो वियोग में
महबूब से दोस्ती
बनी रहेगी पारस्परिक जज्बातों की हस्ती
बनी रहेगी पारस्परिक जज्बातों की हस्ती
[ईमि/०२.०४.२०१३]
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