Wednesday, April 24, 2013

जुदाई का ग़म


जुदाई का ग़म
ईश मिश्र 
तुम्हारी मुहब्बत से टूट गया था काम से इश्क
जुदाई ने तो काम का जज्बा ही तोड़ दिया 
हमारी आशिकी भी तो थी कुछ इतनी अलग
एहसास ही नहीं हुआ इसके खत्म होने तक 
 काश! तब भी पता न चलता ग़र इस बात का
बना रहता रिश्ता शायद हैलो-- -_हाय के जज़्बात का
समझ नहीं पाया था सघनता तुम्हारी कविता की धार की
सोचा, थी वह अभिव्यक्ति किशोर मन के सरल विकार की
सघन सम्वेग था जो एक सम्वेदी मन का
आवेग समझा उसे मैंने एक अलमस्त तन का 
किश्तों में करता हूँ अपनी बेवक़ूफिओ पर अफ्शोस 
याद आता है जब भी तुम्हारा अंतरंग आगोश
सोचा था विप्लव के सफर के होंगे हम हमसफर
फर्क फिर भी नहीं पड़ता चुने जो हमने अलग-अलग डगर 
होंगे परिपक्व जब अंतर्विरोध पूँजीवाद के
टूट जायेंगे सारे अवरोध हमारे सम्वाद के
जब भी होगी युगकारी परिवर्टन की बात
खड़े होंगे हम साथ लिए हाथ-मे-हाथ
14.06.2011

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