मैंने तो बचपन में बहुत नामी-गिरामी भूतों को खुली चुनौती दी, कोइ मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाया और भूत के भय से मुक्त हो गया. थोड़ा और बड़ा हौआ तो संस्कार में मिले भगवान् के विधानों का भी उल्लंघन करना शुरू कर दिया; मंदिरों के सामने पहुंचते ही हाथ जोड़ना बंद कर दिया. पहले प्रतिकूल परिस्थितियों में सभी भगवानों-भगतियों की मदद की गुहारें नाकाम रही थीं.प्रतिकूल परिस्थितियों में भगवान् से मदद माँगने में समय बर्बाद करने की बजाय (बचपन में एक बार तो भगवान् एक खोया नीबू नहीं खोज पाया था हां हां )उनसे निपटने की युक्तियाँ सोचता था और फिर लगा भगवान् है ही नहीं तो डरना भी बंद कर दिया. १७ साल की उम्र में इलाहाबाद विश्ववियालय तक पहुँचते पहुँचते प्रामाणिक नास्तिक हो चुका था और एक काल्पनिक अवधारणा आप का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती. और भगवान् के भय से भी मुक्त हो गया. कहता हूँ जो भूत और भगवान के भय से मुक्त भो जाए वह निर्भय हो जाईगी/गा.
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