कविता
ईश मिश्र
कविता का विषय नहीं तुम तो साक्षात
कविता हो
छरहरा बदन, ज़ुल्फ जैसे अमावस्या की सविता हो
आँखें हैं चकित हिरनी सी, पके बिंब से रक्तिम होठ और अधर
लावण्य ऐसा मुख पर, पखारने से ही खारा हो गाया समंदर
कमर तो है गायब रॉडनी हेप्बर्न सी
बटुक के भार से चाल में है आलस्य की
मस्ती
उन्नत उरोजो के चलते तनिक वक्रता तन की
दर्शाता है प्यार की सनक किसी बेचैन मन
की
अइसी सुंदरता पर टिक जाती बुड्ढो की भी
नजर
वैसे भी इश्क की नहीं होती कोई उमर न
कोई वक्त
प्यार की ख़हिश कभी खत्म नहीं होती
क़ंबख़्त
इश्क हो ग़र समूची दुनिया से, शामिल हो जिसमे माशूक़ भी
ऐसे प्यार की कहानी खत्म नहीं होगी
कहीं-भी कभी-भी
बन जाती है ऐसी मुहब्बत सहयात्री का
रिश्ता
युग-परिवर्तन की राह पर सब मिल चलते
आहिस्ता-आहिस्ता
प्यार की बुनियाद है ग़र मह्ज जिस्मानी
लगाव
रहेगा इसमें झंझावात झेलने की ताकत का
अभाव
आओ मिला दें दुनिया से प्यार में अपना प्यार
बन जाएँ हमसफर आशिक सब तोड़ रश्मो की
दीवार
बदल जाएगा प्यार का दुश्मन यह सड़ा-गला
संसार
नए युग की इस नई दुनिया होगी मुहब्बत
अपरम्पार
यह प्रणय-नेवेदन नहीं प्रेम-गीत है जो
दिनिया से भयभीत है
आजीवन तलाश जिसकी उसका नाम मीत है
Seems feminist and love for literature ....love !!
ReplyDeletethanks
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