Wednesday, February 28, 2018

लल्ला पुराण 192 (रैगिंग)

रैगिंग पर

हा हा मैं अपनी रैगिंग के बारे में फिर कभी लिखूंगा, परसंतापी मूर्खता की हद थी। कई सामंती प्रवृत्ति के सीनियर फ्रेशर्स से नौकर का काम कराते थे, वे इनकी इज्जत करेंगे? एक बार हमारे एक दोस्त (नाम नहीं लिख रहा हूं, उप्र सरकार का रिटायर्ड, राजपत्रित अधिकारी) को उसके हॉस्टल के एक सीनियर ने उसे ताले में चाभी लगवाने भेजा। खुले पैसे नहीं थे 100 रु. की नोच दिया था। हम लोग उसे को ठाकुर कहते थे। नौकर के काम से उसका ठाकुर इगो हर्ट हुआ। यूनिवर्सिटी रोड पर मिला और साथ कटरा चौराहे तक चलने को कहा। रास्ते भर गालियां देता रहा, उस सीनियर को। कटरा चौराहे पर देखा तो ताला वाले की दुकान बंद थी। हमलोगों के दिमाग मे एक आइडिया आया कि नेतराम में पूड़ी कचौड़ी खाकर लस्सी पीते हुए चाभी बनाने की दुकान खुलने का इंतजार करें। उन दिनों (1972-73) 100 रु. बहुत होते थे। आम लड़कों के 200 मनीऑर्डर आता था। नेैतराम पर कार्यक्रम खत्म होने तक चाभी बनाने वाला नहीं आया। हम लोग 'फ्रेसर' थे, चाभी बनाने के की एक ही दुकान मालुम थी नए शहर में दूसरी दुकान कहां खोजते और सीनियर का काम किए बिना कैसे लौटते? फिर हम लोगों ने सोचा कि पैलेस में फिल्म देख लें, मैं पैदल चलने के मूड में था ठाकुर ने कहा रिक्शे में चलें। 8 आना सिविल लाइंस का किराया होता था, हमें लगा यह कम है और गरीब की मदद करना सब धर्म सिखाते हैं तो हमने उसे 2 रु. दिया, उसे समझ नहीं आ रहा था, हमें क्या, हम तो दूसरे के पुण्य के लिए परमार्थ कर रहे थे। फिल्म देखने तक नेतराम की कचौड़ी पच गयी थी। वैसे तो हमें सोनी के छोले-भटूरे भी बहुत अच्छे लगते थे, लेकिन वे सानियर सीनियर ही नहीं थे ठीक-ठाक बड़े भैय्या भी थे और एक जातीय गुट के नेता। प्रोटोकोल का मामला यह था सस्ती दुकान पर खाकर हम भैय्या की शान में गुस्ताखी नहीं कर सकते थे। हमने कभी एल्चिको में नहीं खाया था, सोचा भैय्या के सौजन्य से यह शौक भी पूरी कर लें। वापस कटरा पहुंचे तो चाभी बनाने वाला आ गया था और हम लोग एक या डेढ़ रुपए में चाभी बनवाकर आ गए और बचे पैसे ठाकुर ने सर को लौटा दिया। उसके बाद किसी सर ने ठाकुर को सिगरेट-चाय लेने नहीं भेजा।

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