बगावत की पाठशाला
विद्रोह रचनाशीलता की शर्त है; संघर्ष निर्माण का फर्ज है
पाठ 2
मार्क्सवाद क्या है? 2
स्वतंत्रा और मार्क्सवाद 1
पूर्वकथ्य:
पहली क्लास में प्रतिक्रियाओं, सवालों और बहस से प्रोत्साहित हो मुझे लगा कि क्लास ज्यादा नियमित होनी चाहिए। इस पोस्ट पर कुछ लंबे उत्तर मैं अलग से पोस्ट कर देता हूं, उसे भी क्लास का हिस्सा माना जाए। मैं गदगद हूं। विषय पर आने के पहले बता दूं मैं क्यों गदगद हूं? इसका जवाब मैं एक अनुभव से देता हूं। वैसे टेक्स्ट के पहले फुटनोट नहीं होना चाहिए, फिर भी। 1990 के दशक के अंतिम सालों की बात है। मैं मयूरविहार में रहता था, मोटरसाइकिल से चलता था। 9 बजे से एमए की एक क्लास थी जो हफ्ते में 2 ही दिन होती थी। रास्ते में बारिस शुरू हो गयी, रास्ते में कई जगह रुकने की गुंजाइश थी लेकिन समय नहीं था। वैसे भी चोट लगने वाली धार की बारिस न हो तो बाइक में कोई कष्ट नहीं होता। उम्मीद के प्रतिकूल क्लास खचाखच भरी देख बहुत प्रसन्नता हुई रूसो और उपयोगिता वादियों की प्रसन्नता की तुलनात्मक अवधारणाओं पर क्लास थी। पंखे के नीचे शर्ट सूखती रही, पढ़ाने में मजा आता रहा। कुछ करने में आपको मजा आने लगे तो समझिए काम अच्छा हो रहा है। मैंने क्लास के अंत में उन्हें बताया कि यही फर्क है स्व के न्यायबोध को स्व के स्वार्थबोध पर तरजीह देने की प्रसन्नता की रूसोवादी अवधारणा में और खाओ-पिओ-मस्त रहो की उपयोगितावादी अवधारणा में। एक शिक्षक के स्व का न्यायबोध बोधगम्य भाषा में विद्यार्थियों को समझाना और पढ़ने को प्ररित करना। इलाहाबाद के प्रयागराज प्रोफेसरों को क्लास न लेने में सुख मिलता है, यह सुख उपयोगितावादी है। मैं अगर सोफर ड्रिवेन बीयमडब्लू में आता और क्लास खाली या आधी मिलती तो शायद, सुख की जगह दुख मिलता। द्वंद्वात्म भौतिकवाद पर अगली क्लास की तैयारी जब तक करूं, सोचा 2012 में मार्क्सवाद और आजादी के अंतर्विरोध के सवाल के जवाब के रूप में छ साल पहले का लेक्चर दे दूं। मार्क्सवाद और आजादी एक अहम विषय है, इसलिए इल पर अलग से 4-5 क्लासेज की जरूरत पड़ेगी। तब तक कॉपी-पेस्ट:
मार्क्सवाद व्यक्तिगत आज़ादी का विरोधी नहीं, सभी की वास्तविक व्यक्तिगत आज़ादी का घोर हिमायती होने के ही चलते उदारवादी आज़ादी के भ्रम को तोड़ता है क्योंकि व्यक्ति के स्वायत्त अस्तित्व की अवधारणा एक भ्रम है, कोई भी व्यक्ति गुलाम या मालिक व्यक्ति के रूप मे नहीं बल्कि समाज में, समाज के द्वारा, समाज के स्थापित संबंधों के तहत, समाज के अभिन्न रूप के रूप में वह गुलाम या आज़ाद होता है. व्यक्ति सदा स्वार्थपरक होकर निजी इच्छाओं की पूर्ति को ही जीवन का उद्देश्य मनाता है, यह भी एक पूंजीवादी विचारधारात्मक दुष्प्रचार है. यह आज़ादी औरों से सहयोग की नहीं अलगाव की, दूसरों की आज़ादी की बेपरवाही की, बेरोक-टोक लूट और संचय की अजादी है. सवाल उठाता है क्या किसी परतंत्र समाज में कोई निजी रूप स स्वंतत्र हो सकता है? निजी स्वंत्रता समाज की स्वतंत्रता से जुड़ी है. आज़ाद होना चाहते हैं तो समाज को आज़ाद करें. मेरे विचार से मार्क्सवाद का मूल मंत्र है कि आज़ाद होना चाहते हो तो आज़ाद समाज का निर्माण करो, व्यक्तिगत आज़ादी सामाजिक आजादी का अंग है।
“किसी भी समाज में श्रमशक्ति और रचनाशीलता को लूटना और खसोटना कह के” मैंने कभी नहीं संबोधित किया. बल्कि सारी समस्ययायें और एलीनेसन श्रमशक्ति और रचनाशीलता पर स्वाधिकार के क्षरण से होता है. श्रमशक्ति के फल पर और अंततः श्रमशक्ति पर खरीददार –पूंजीपति का अधिकार होता है. कोई भी श्रमिक कितना भी अधिक वेतन पाता हो संचय नहीं कर सकता, संचय के भ्रम में रहता है, संचय तो सिर्फ पूंजीपति ही कर सकता है. श्रम-शक्ति को उपभोक्ता सामग्री के दर्जे से मुक्ति दिलाना और उसे रचनाशीलता के रूप मे सम्मानित करना मार्क्सवाद का मकसद है. जी हाँ स्वायत्त अस्तित्व की धारणा विशुद्ध भ्रम है. ऐतिहासिक विकास के दौरान मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ अपनी इच्छा से स्वतन्त्र सम्बन्ध स्थापित करता है. मार्क्सवाद मनुष्य के behavioral aspect को नकारता नहीं बल्कि चेतना के रूप में उसकी वैज्ञानिक व्याख्या करता है. ऐतिहासिक भौतिकवाद, जिसे मार्क्सवाद का विज्ञान कहा जाता है, निरंतर शोध और अन्वेषण के जरये तथ्यों-तर्कों पर आधारित प्रमाणित और सत्यापित किए जा सकने वाले प्रमेयों का समुच्चय है. सत्य किसी पूर्वाग्रह/पोंगापंथ/ईश्वर की इच्छा या मार्क्स के वक्तव्य पर नहीं आधारित है, सत्य वही जो प्रमाणित किया जा सके. विकास के हर चरण की भौतिक परिस्थियां और तदनुसार समाजीकरण के अनुसार मानव चेतना का निर्माण होता है और बदली चेतना बदली भौतिक परिस्थियों का परिणाम है. लेकिन परिस्थियां स्वयं नहीं बल्कि सचेत मानव प्रयास से बदलती हैं. अतः सत्य भौतिक स्थितियों एवं चेतना का द्वंदात्मक संश्लेषण है.
28.02.2012
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