Friday, February 23, 2018

लल्लापुराण 186 ( स्व के न्याय और स्वार्थबोध)

स्वयं को ही बेहतर मानने का कोई इगो नहीं है। मेरी बेटी के साथ मेरे संवाद को कोई सुने तो दांत तले उंगली दबा ले। कभी कहता हूं कि अपने बाप से ऐसा करती हो? दूसरे के बाप के साथ ऐसा करने में खतरे की बात करती है। ज्यादा कुछ कहने पर कहती है, उसके बाप ने यही सिखाया है। हम बहुत अच्छे दोस्त हैं। मैं समानता के सुख को सर्वोच्च सुख मानता हूं।

मिडिल स्कूल में टीचर ने पूछा क्या बनोगे, अह 11-12 साल के गांव के लड़के को क्या मालुम क्या बनेगा? मैंने कहा अच्छा। अच्छा तो प्रेडिकेट है अपने आप में कुछ नहीं, अच्छा इंसान, अच्छा शिक्षक, अच्छा बाप, अच्छा वार्डन। अच्छा बनने के लिए लगातार अच्छा करना पड़ता है। अच्छा करने के लिए 'क्या अच्छा है?' जानना पड़ता है। जानने का कोई फॉर्मूला नहीं है, खास परिस्थिति में दिमाग के इस्तेमाल से जाना जा सकता है।

सभ्य (वर्ग) समाज व्यक्तित्व को विखंडित करता है -- स्व का न्यायबोध और स्व का स्वार्थबोध में। स्व के न्यायबोध की प्रथमिकता स्व के स्वार्थबोध की प्राथमिकता से ज्यादा सुखद है। सोचने का साहस और सोच के परिणामस्वरूप समझ को व्यवहार में सामाजिक प्रचलन की परवाह किए व्यवहार में अमल करने की जुर्रत, अच्छा करना है। बिल्ली के गले में घंटी बांधना ही है तोमैं ही क्यों नहीं? मैं निजी आक्षेप और मेरा नाम देखते ही पंजीरी खाकर भजन गाने वालों से कोफ्त हो जाती है, अपनी भाषा की मर्यादा और समय बचाने के लिए उन्हें अदृश्य कर देता हूं। अच्छा होने के सुख का मूलमंत्र है, करनी-कथनी में एका का लगातार प्रयास।

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