वीडियो में इलाहाबाद में जिस तरह कुछ लड़के बेखौफ, मजा ले-लेकर एक लड़के की खुले-आम ईंट-पत्थर-डंडों से पीट-पीट कर फुर्सत से हत्या करते रहे। प्रत्यक्षदर्शी तटस्थभाव से झंझट में न पड़ने का नागरिक धर्म निभाते रहे। भयावह है यह अपराध और समाज में व्याप्त तटस्थभाव। मृतक का दलित होना संयोग हो सकता है, नहीं भी, लेकिन उसका लॉ का विद्यार्थी होना नहीं, वह उसकी प्रतिभा, परिश्रम और मां-बाप के त्याग का नतीजा था। जो लड़के उसकी हत्या कर रहे थे वे भी पढ़ने-लिखने या पढ़े-लिखे लग रहे थे। एक शिक्षक होने के नाते विह्वल हो जाता हूं कि कैसी सोच और संवेदना यह शिक्षा इन युवाओं को दे रही है? कुछ युवक एक अकेले युवक को आराम से इस तरह फुर्सत से ईंट-पत्थर और डंडे से पीटते हैं जैसे आराम से खैनी खा खा कर ताश के पत्ते फेक रहे हों और उपस्थित जन खेल के दर्शक हों। 2 लड़के आराम से लाश को मोटर साइकिल पर बैठाकर बेफिक्र-बेखौफ भाव से चले जाते हैं। महान हैं हम? जब कोई 'हमारे समय में' की भाषा बात करे तो लगता है वह बुड्ढा हो गया है, खैर उम्र के लिहाज से तो वान्यप्रस्थ अवस्था में पहुंच ही गया हूं और न मानने से तथ्य नहीं बदल जाता। जब से (4 बजे) उठा हूं, मन को उस वीडियो के संदर्भ में तटस्थता और अपरिचित मृतक के परिजनों की मनोदशा से जुड़े विचार मथ रहे हैं। 'हमारे समय' (44-45 साल पहले) में भी इलाहाबाद में गुंडागर्दी के अपराधों के प्रति 'आम छात्रों' में तटस्थभाव ही रहता था। इलाहाबाद ही नहीं हर शहर का यही हाल है, तटस्थता भाव हमारे समाज का स्थाईभाव सा बन गया है। दिल्ली-गुड़गांव आदि तमाम शहरों में 2-3 गुंडे भरे-बाजार किसी को चाकू से गोदते हैं, जनता तटस्थ रहती है। तटस्थता भी अपराध है।
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