इविवि के दलित छात्र दिलीप सरोज की सरे-आम हत्या उन 'प्रगतिशील' सवर्णों के लिए पुनरावलोकन का संदेश जो कहते थकते नहीं कि भारत में जातिवाद खत्म हो गया है, उन राष्ट्रवादियों के लिए भी जो काल्पनिक समुदाय हिंदू-एकता का भजन गाते नहीं थकते। हिंदू तो कोई पैदा नहीं होता कोई बाभन पैदा होता है कोई चमार। कई बाभन से इंसान बन जाते हैं और जातिव्यवस्था की विद्रूपता से आहत हो, ब्राह्मणवाद (जातिवाद) के विरुद्ध इंसानी-प्रतिष्ठा की सामनता का परचम थाम लेता है। चमार से इंसान बनना आसान है क्योंकि इसमें वंचनाओं से मुक्ति की बात है, बाभन से इंसान बनना इतना आसान नहीं है क्योंकि इसमें विशेषाधिकारों (प्रिविलेजेज) से मुक्ति की। पिरामिडाकार संरचना में विशेषाधिकार को अधिकार मान लिए जाता है, वर्चस्वशाली विशेषाधिकारों में कटौती को अपने 'मानवाधिकार' का हनन मानता है। इस घटना के वीडियो से अब तक विचलित हूं और शिक्षक होने के नाते ऐसे कुनागरिक पैदा करने वाली शिक्षा व्यवस्था पर शर्मिंदा भी।
नोट:बाभन से इंसान बनना एक मुहावरा है, किसी जाति-विशोष पर टिप्पणी नहीं। इस मुहावरे के आविष्कार का मूल श्रेय इतिहासकार प्रो. आरयस शर्मा का है। एक बार (1986 या 87, अरवल कांड वाले साल) उनके साथ नई दिल्ली से पटना आमने-सामने की बर्थ पर रेल यात्रा का सुखद अवसर मिला। विश्वविद्यालयों में व्याप्त जातिवाद पर बात-चीत में, हास्यभाव से उन्होंने कहा, "मैं तो स्टूडेंट दिनों में ही भूमिहार से इंसान बन गया, लेकिन सब मानते ही नहीं"। मैंने उनके मुहावरे को संशोधित कर भूमिहार की जगह बाभन कर दिया।
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