आपके कमेंट में यह इलाहाबादी अमरूदों की टोकरी देखकर एक वाकया याद आ गया।1976 मे भूमिगत दिनों में कुछ दिन राजापुर में रहता था। मिंटो रोड और स्टेन्ली रोड के बीच नाले के ऊपर एक अमरूद का बड़ा बगीचा था। मैं लगभग हर रोज एक अमरूद 'चुराता' था। रखवाली करने वाली एक माता जी थी। उनको एक अमरूद की चोरी अजीब लगती थी। एक दिन पकड़ लिया। अमरूद मेरे हाथ से ले लिया और बाग के बीच स्थित अपनी भोपड़ी की तरफ चलने का इशारा किया। वहां 2 बकरियां इधर-उधर चर रही थीं। बाहर एक बसैठा और दो ऊंचे-ऊंचे बिड़वा (धान के पुवाल से बना मोढ़ा) पड़े थे और उसी के पास एक 16-17 साल का लड़का पत्थर पर रगड़ कर बांकी (लकड़ी के हत्थे वाला आयताकार लोहे का चारा बालने का औजार) की धार तेज कर रहा था। माताजी के चेहरे के भाव से पता नहीं चल रहा था गुस्से का है या दुलार का। लड़का तल्लीनता से अपना काम कर रहा था, उसे बाहरी व्यक्ति के बारे में जानने या देखने में कोई उत्सुकता नहीं थी। माताजी झोपड़ी में चली गयी। मैं आश्वस्त था कि एक अमरूद के लिए यह लड़का (उनका बेटा) बांकी से तो नहीं मारेगा। बाकी बुजुर्ग हैं, डांट सह लूंगा। लेकिन डांटने में इतना समय लगने से कुछ आशंका हो रही थी। थोड़ी देर में वे झोपड़ी से मौनी में लाई लेकर निकलीं। डांटकर बोलीं, ' खड़ा-खड़ा हमार मुंहां का ताकत हवे, बैठ'। मैं समझ गया जौनपुर से पूरब की होंगी। 'चोरी काहे करैले? मैंने कहा कि एक ही तो तोड़ता हूं। उन्होंने कहा एक मुझसे मांग लिया करो, मैंने कहा, मांग कर नहीं मेहनत से खाना चाहिए। फिर तो उन्होंने चोरी के काम पर भोजपुरी में रोचक लेक्चर दिया।बाद में पता चला उनका नाम शांति की अम्मा है। लेक्चर देते हुए वे स्टोव पर चाय भी बना रहीं थी। उसके बाद हमारी दोस्ती हो गयी और मैं अब किनारे के पेड़ से नहीं ,बाग के बीच के पेड़ से अमरूद चुराता था। कई बार तो शांति की अम्मा चोरी की अच्छी पात्रता का पेड़ भी बता देतीं। उसीके 20-25 दिन बाद दिल्ला आ गया और यह घटना समृति पटल से उतर गया था। कभी लिखूंगा, कई बातें माताजी से सीखने को मिलीं थी। मौका मिला तो लिखूंगा।
21.02.2018
21.02.2018
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