Friday, February 23, 2018

लल्ला पुराण 184 (समय निवेश)

 इलाहाबाद विवि के एर फेसबुक ग्रुप, लल्ला की चुंगी, पर फेसबुक मित्र पूर्णेंदु शुक्ल से इनबॉक्स में संवाद का अंश:

आप खंगालिए मेरी पोस्ट। कम-से-कम 50 लेख अन्यान्य विषयों पर। इस मंच पर बहुत से सवर्ण पुरुषों के अपनी पोस्ट पर कमेंट देख लगता है इन लड़कों ने जीवन में कुंजी और दैनिक जागरण या पीसीयस कोचिंग नोट्स के अलावा कुछ पढ़ा ही नहीं है। कुछ ऐसे ही लंपट मेरा नाम देखते ही धर्म धर्म--जेयनयू जेयनयू अभुआने लगतै हैं। आप देखिये 3-4 साल की पोस्ट्स में कृष्ण की चर्चा नहीं है। पारितोष दूबे की मां-बहन वाले कमेंट के साथ मेरी पोस्ट के बाद अरविंद राय ने एक पोस्ट डाला कि मैं उनके आराध्य कृष्ण को फरेबी कह रहा था उनकी भावनाएं आहत हुई हैं, टिपिकल संघी साजिश धर्मोंमाद फैलाकर दंगे करवाना, मॉबलिंचिंग करना, जैसे योगी की वाहिनी का वह दीक्षित गाय काटकर कर रहा था। इसे मैं अपढ़ समझता था शातिर नहीं। मैंने सोचा था कि ऐसे अपढ़ों को कुछ पढ़ा दूंगा, लेकिन ये तो आभासी दुनिया के लंपट हैं, सीखने की बजाय शिक्षक को नीचा दिखाने की कोशिस करते हैं। 2 अक्षर अंग्रेजी पढ़ नहीं सकते भाषा की तमीज है नहीं। इन लंपटों पर बहुत समय बर्बाद किया। कल एक लेख का समय इस मंच पर नष्ट कर दिया। इनकी भाषा सड़क छाप गुंडों की भाषा लगती है। मैं इन्हें ब्लॉक इसलिए करता हूं कि मैं कई बार 42 साल पहले 20 का होने की बात भूल कर अपनी भाषा भ्रष्ट कर लेता हूं। कल एक झुंडवीर ने कहा कि सामने होता तो वे मुझे भाषा की तमीज सिखाते, ऐसे जैसे मैं गुंडों और कुत्तों से डरता हूं जो झुंड में शेर हो जाते हैं, वैसे पत्थर उठाने के अभिनय से ही दुम दबाकर भाग जाते हैं।  मैं समय खर्च करता हूं, व्यर्थ नहीं। यहां निवेश के हानिपूर्ण प्रभाव हैं।  इस ग्रुप पर अब ब्लॉग से नए लेख शेयर करने के अलावा सक्रिय सदस्यता समाप्त करता हूं, समय कम है काम ज्यादा। पता नहीं कैसा पालन-पोषण-शिक्षा मिलती है इन्हें, कि बात करने की न्यूनतम तमीज भी नहीं निभा पाते। सानियर-जूनियर की संस्कृति की बात करते हैं और बाप की उम्र के सीनियर की बिन कारण बताए मां-बहन करने लगते हैं, मेरी दुनिया में इलाहाबाद भी है, लेकिन उससे परे भी है। सादर।

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