जिन्हें कविता का क न मालुम हो
वे फैसलाकुन समीक्षा करने लगे हैं
फांदते थे जो कल तक दीवार
काज़ी-ए-वक़्त बन बैठे हैं
जो रहे हैं सदा किसी-न-किसी शह के गुलाम
आजादी की परिभाषा गढ़ने लगे हैं
बाभन से इंसान तो बन नहीं पाए
जगत्गुरु बनने निकल पड़े हैं
(ईमि: 07.09.2017)
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