Sunday, September 10, 2017

मार्क्सवाद 77 (वर्ग-जाति)

Mahendra Yadav उनके नारों और पर्चों से लगता है कि बापसा एक नवब्राह्मणवादी संगठन है और न ही अंबेडकर फूले की विरासत की एकमात्र दावेदार। इनका हमला ब्राह्मणवाद और कॉरपोरेटवाद से ज्यादा वामपंथ पर होता है।जिसके कई सदस्य मेरे पृय मित्र हैं। हमारे अंतविरोध मित्रवत होने चाहिए शत्रुवत नहीं। जिसे भगवा-लाल एक दिखे वह पेरियार या फूले का सच्चा अनुयायी नहीं हो सकता न ही अंबेडकर की विरासत का सच्चा दावेदार। अस्मिता की राजनीति (आंदोलन नहीं) अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूरी कर चुकी है। अब बड़े से बड़े जातिवादी कि हिम्मत नहीं है कि कहे कि वह जात-पात में यकीन करता है, खान-पान की वर्जना का कोई अन्य बहाना करेगा,उसी तरह जैसे किसी बाप की हिम्मत नहीं है कि खुलकर कहे कि वह बोटा-बेटी में भेद करता है, एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले ही पैदा कर ले। यह क्रमश: जातिविरोधी और स्त्रीवादी विचारधाराओं की सैद्धांतिक जीत है। इसे व्यवहारिक रूप देने के लिए अस्मिता की राजनीति से ऊपर उठ सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की जरूरत है। मेरे छात्रजीवन से अब तक दलित प्रज्ञा, चेतना और दावेदारी तथा स्त्री चेतना, प्रज्ञा और दावेदारी का रथ इतना आगे बढ़ चुका है कि इसे रोकना नामुमकिन है। शासक वर्ग इसे रोकने में अक्षम, इसे अपने हित में ढालने की कोशिस कर रहा है, जैसे बुद्ध के विचारों को रोकने में अक्षम ब्राह्मणवाद ने उनको अवतार बना दिया। अब दलित और नारी चेतना के जनवादीकरण की जरूरत है। जयभीम-लालसलाम को सैद्धांतिक और व्यवहारिक परिभाषा देने की जरूरत है। सामाजिक और आर्थिक न्याय के संघर्षों की एकता की जरूरत है। जहां भी सामाजिक न्याय का संघर्ष आर्थिक न्याय के संघर्ष से जुड़ता है कुछ सफलता मिलती है, चाहे पंजाब के दलितों का जमीन आंदोलन हो या गुजरात का। परिवर्तन का एक ही रास्ता है मार्क्सवाद। यार आप मुझे फंसा देते हैं। 2 लाइन सोचा था, पूरा लेख हो गया। यदि भारत में यूरोप की तरह जनतांत्रिक-सामाजिक क्रांति हुई होती या मार्क्सवाद को अपना वैचारिक आधार मानने वाली कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवाद को मॉडल न मानकर, विज्ञान के रूप में इसके आधार पर अपनी परिस्थितियों के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर वर्ग-जाति के अंतःसंबंधों की समीक्षा से निकले निष्कर्षों के अनुसार नीतियां बनाते तो अस्मिता राजनीति की न गुंजाइश होती न ही जरूरत। लेकिन अतीत सुधारा नहीं जा सकता है उसके अनुभवों की सीख से एक नए भविष्य की शुरुआत की जा सकती है। जबतक जातिवाद रहेगा, जातीय अस्मिता का रेखांन उसका एक लक्षण है, जब तक जातियां रहेंगी, तबतक हिंदू रहेगा और जबतक हिदू रहेगा, हिंदुत्व फासिज्म को उर्वर जमीन मिलती रहेगी। इस अंधे समय में वक्त का तकाज़ा है कि सभी परिवर्तनकामी शक्तियां पार्टी लाइन और अस्मिता की राजनीति से ऊपर उठकर खुले मन से संवाद करें और जयभीम-लाल सलाम नारे की प्रासंगिकता का आधार तथा एकता के रास्ते बनाएं।

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