Sunday, September 17, 2017

बेतरतीब 17 (बेटा-बेटी)

बहुत बचपन की कुछ बातें याद हैं, खासकर जिनका जिक्र लोग बाद तक करते थे। मेरी मुंडन पांचवे साल में हुई थी। आम तौर पर साल भीतर या तीसरे साल में सबकी हो जाती थी। दादा जी के पंचांग की गणना से मेरी मुंडन के ग्रह-नक्षत्रों का संयोग पांचवे साल में बैठा। मां या दादी के पास समय हुआ तो जूड़ा चोटी कर देती थी, कभी कभी कई दिन हो जाते तो लट पड़ जाती और बच्चे, बड़े भी मुझसे इमली हिलाने को कहते और मैं मगन होकर सर हिलाने लगता।कोई भी अपरिचित बिटिया बुला देता। अच्छा तो नहीं लगता था लेकिन सह लेता था। उम्र में बड़े कुछ लड़के लड़की कह कर चिढ़ते अच्छा तो वह भी नहीं लगता था लेकिन वापस उन्हें लड़की कहने के अलावा कुछ कर नहीं पाता था। उन दिनों स्त्रियां एक खास किस्म की चिकनी मिट्टी (नाम भूल रहा है) से बाल धोती थीं। एक दिन दादी ने उसी मिट्टी से मेरा बाल धोकर अच्छा सा जूड़ा बांध दिया। अनामत चाचा (दर्जी) उसी दिन सिलकर कपड़े दे गए थे। मैं खुशी-खुशी बगीचे में और बच्चों के साथ खेलने जा रहा था, अपने नए कपड़े भी दिखाने थे। बड़े भाई मुझसे 5 साल बड़े थे और छोटा डेढ़-दो साल छोटा। तभी रास्ते में साइकिल से आते एक व्यक्ति ने रोक कर पिताजी का (मेरा) घर पूछा, वह तो ठीक था, लेकिन उन्होने बेटी कह कर बुलाया था। मेरी छवि अच्छे बच्चे की थी, लेकिन अच्छे बच्चे की भी सहनशीलता की सीमा होती है, कभी-न-कभी ट्रीगरिंग प्वाइंट आना ही था। सीमा टूट गयी और मैंने उन्हे सप्रमाण बता दिया कि मैं लड़की नहीं लड़का था। उन्होने साइकिल खड़ी कर हंसते हुए मुझे गोद उठा लिया और सािकिल की सीट पर बैठा कर घर ले गए। बाद में उनसे बहुत दोस्ती हो गई। पिताजी के अच्छे दोस्त थे, अब शायद न हों, नाम याद है,चकिया के राम सुमेर यादव। यह अनुभव इसलिए शेयर कर रहा हूं कि 5 साल से कम लड़के के दिमाग में यह कहां से आता है कि लड़की होना गंदी बात है? लड़कियों को तो सब बेटा-बेटा करते रहते हैं वे खुश हो जाती हैं। मैं कभी बेटी को बेटा कह कर चिढ़ा था तो कहती थी 'तू-तू-तू बेटा', औरों से विनम्रता से कहती है, "Excuse me, I don't take it as complement." एक तीन या 4 साल के लड़के को बेटी कहे जाने पर इतना अपना क्यों महसूस होता है? लगता नहीं कि किसी ने कभी कहा होगा कि लड़की खराब होती है। बच्चे बहुत तीक्ष्ण प्रेक्षक और नकलची होते हैं, वे परिवेश से सीखते हैं, अनजाने में, बिना किसी सोचे-समझे प्रयास से वे सामाजिक मूल्यों को आत्मसात करते रहते हैं, जिसे हम संस्कार कहते हैं, मैं उसे acquired morality कहता हूं। इसी लिए संस्कारों को तोड़ना तार्किक, बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। मैंने एक कविता (तुकबंदी) में लिखा है, 'मुझे अच्छी लगती हैं ऐसी लड़कियां, जो संस्कारों की माला जपते हुए नहीं, तोड़ते हुए आगे बढ़ती हैं'। मैं अपने स्टूडेंट्स से कहता हूं, "We acquire so many values, prejudices, dogmas and sense of morality during our growing up without our conscious will or effort, one needs to question and replace those moralities with rational ones, as the application of mind is species-specific attribute of the humankind." इसी को मैं कभी बाभन से इंसान बनने के रूपक के रूप में पेश कर देता हूं, तो लोग नाराज हो जाते हैं।

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