Wednesday, September 13, 2017

फुटनोट 124 (संस्कार)

मैंने ऊपर बताया है कि बाभन से इंसान बनना एक रूपक है। मैं भी बुजुर्गों के पैर छूता था, बचपन में मां-पिताजी-दादी-दादा की का आदतन आजीवन। हम विरासत में मिली मान्यताओं को संस्कार कहते हैं, वर्तमान अतीत से आगे है और भविष्य का पत प्रशस्तक। विरासत की मान्यताओं पर सवाल किए बिना आगे नहीं बढ़ सकते। मैं तो कट्टर, कर्मकांडी, पंचाग अनुगामी ब्राह्मण परिवार में पला हूं। मिडिल स्कूल बोर्ड की जिस दिन 7 बजे से परीक्षा थी उसके पहले वाली रात 12 बजे साइत। आधी रात से सुबह छः बजे तक पैदल और दादाजी के कंधे की सवारी परीक्षा केंद्र पहुंचा। पवित्रता-अपवित्रता से; मंत्र-तंत्र और भूत-प्रेत की अवधारणाओं से मोहभंग की शुरुआत 9-10 साल की उम्र में ही हो गयी थी; 13 में जनेऊ तोड़कर अनजाने में ही संस्कारों से मुक्ति का रास्ता पकड़ लिया और 18 साल तक भूत के साथ भगवान के भी भय से मुक्त हो नास्तिक बन गया। जन्म से मिली अस्मिता की सनातन प्रवृत्ति से मुक्ति के बिना संपूर्णता में मनुष्यत्व नहीं प्राप्त किया जा सकता। परंपराएं सिर पर पूर्वजों की लाशों के भार की तरह होती हैं। और भार तो फिर भार ही होता है। 

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