Monday, September 25, 2017

मार्क्सवाद 83 (कश्मीर)

पहली बात तो कम्युनिस्ट राज्यविहीन वयवस्था है , सर्वहारा की तानाशाही संक्रमणकाल है। मेरी कोई कम्युनिस्ट सरकार नहीं हो सकती, मेरी तो कोई पार्टी भी नहीं है, कम्युनिस्ट सरकार किसी की नहीं होती लोगों की होती है। तमाम अनभिज्ञ आम मध्यवर्ग की तरह आप भी बात कुछ भी हो सिर पर कम्युनिस्ट का भूत सवार हो जाता है जबकि हिंदी क्षेत्र में तो कम्युनिस्टों का वजूद ही नहीं हैं। कुछ पढ़ लेते तो प्रामाणिकता से हस्तक्षेप कर सकते थे। कम्युनिस्ट के भूत के असर से निकलिए औप कभी कभी मुद्दे पर बात कर लिया कीजिए। सचमुच की कम्युनिस्ट सरकार होती तो संवाद से कश्मीर का मामला सुलझाती क्योंकि फौज के बल पर किसी आबादी को आप हमेशा नहीं कब्जे में रख सकते, जितना अत्याचार करोगे, आजादी की भावना और अत्याचारी से घृणा उतनी तेज होगी। जनतंत्र में सबको आत्मनिर्णय का अधिकार है। आपका कम्यनिस्ट ज्ञान उतना ही है जितना मेरा हाई स्कूल में था कि कम्युनिस्ट का ईनाम धरम नहीं होता मां-बहन में फर्क नहीं करता। यह कूड़ा बच्चे के दिमाग में समाजीकरण और माहौल से भरता है। 14-15 साल का था (1969), मेरे कर्मकांडी पिताजी के कम्युनिस्ट दोस्त थे, 1974 में एमएलए थे, एक बार घर आए थे, मुसहर का लड़का शादी की सुबह पत्तल उटा रहा था। मैंने उनसे पूछ दिया कि इतने अच्छे आदमी होकर वे कम्युनिस्ट क्यों थे? वक्त नहीं है उनका जवाब शेयर करने का लब्बे लबाब वे इतने अच्छे इसीलिए थे कि कम्युनिस्ट थे। इसलिए कम्युनिस्ट हैं कि मेरे उम्र के मुसहर के लड़के को भी पढ़ने का अधिकार हो। किशाोरावस्था की बौद्धिक स्तर से ऊपर उठिए। मार्क्स का सारा लेखन ऑनलाइन उपलब्ध है। कभी कुछ पढ़ लीजिए। फायदा न भी हुआ तो नुक्सान तो कुछ नहीं होगा।

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