Sunil Kumar Suman कोई सवर्ण नहीं मारा गया क्योंकि क्रांतिकारियों में दलित ही ज्यादा थे। रणवीर सेना और सरकार इस भूमि संघर्ष की प्रतिक्रिया को जातीय विवाद दिखाने में सफल रहे। क्रांतिकारी आंदोलनों से उभरी दलितचेतना और दावेदारी को न हजम कर पाने की बौखलाहट में ये नरसंहार हुए। इन पार्टियों के नेतृत्व में दलितों का न पहुंच पाना इनकी नाकामी है। आरा से लिबरेसन के एक बार एक सांसद जीते थे .नाम भूल रहा है दलित कॉमरेड हैं, 1978 में मुलाकात हुई और मैं उनकी समझ के स्तर से दंग रह गया और कहा कि आपको जेयनयू केे प्सोररों की एक क्रलास लेनी चाहिए। वे शायद पोलिटब्रयरो में थे। इन छद्म वामपंय़ियों के पक्ष में खड़े हाना होता तो किसी-न-किसी पार्टी में होता। मैं 30 साल से किसी पार्टी में नहीं हूं। बिना संगठन के कुछ नहीं किया जा सकता, इसलिए मानवाधिकार संगठन जनहस्तक्षेप मे हूं और हमलोग अपनी औकात से अधिक हस्तक्षेप करते रहते हैं, लेकिन इतना नाकाफी है। जहां तक सीपीआई/सापीयम की बात है इनमें और अन्य संसदीय पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया है। मैंने कलकत्ता में नंदीग्राम पर कन्वेसन में कहा था कि बुद्धादेव वैसे ही कम्युनिस्ट है जैसे मुलायम सिंह सोसलिस्ट। इसीलिए जरूरत है एक नई क्राेतिकारी धारा की। सामाजिक-आर्थिक न्याय की एकता की धारा की, जयभीम-लालसलाम को स्पष्टता से परिभाषित करने की। लेकिन आज खतरा इतना बड़ा है कि एक व्यापक मंच की जरूरत है। यह किया जासकता है यदि बड़े स्तर पर संवाद हो। मैंने जेयनयू में सारे लालों और नीलों को झंडा-दुकान का मामला छोड़ साथ लाने की कई नाकाम कोशिसें की।
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