विषयांतर वैसे भी विमर्श को विकृत करता है, विषयांतर के विषय में निजी आक्षेप भी शामिल हो जाएं तो विमर्श का विनाश हो जाता है। साथी Manoj Singh ने एक प्रासंगिक सवाल उठाया है, जिस पर सार्थक बहस हो सकती है। पार्टी लाइन मार्क्सवादी अवधारणा है कि नहीं, इस पर वाद-विवाद-संवाद हो सकता है, लेकिन इस पर सवाल को ही खारिजकर । समाजवाद के इतिहास पर 'समयांतर' के लिए लेखमाला के सितंबर अंक में आने वाले लेख में एक संक्षिप्त अंश वर्ग- संघर्ष और पार्टी पर है। मार्क्स ने पॉवर्टी ऑफ फिलॉस्फी, मैनिफेस्टो, एटींथ ब्रमुेयर से लेकर इंटरनेसनल के संबोधन और सिविल वार इन फ्रांस में प्रकारोंतर से इस बात को बार बार रेखांकित किया है कि मजदूर अपनी मुक्ति का संघर्ष खुद लड़ेगा लेकिन जब वर्गचेतना से लैस हो, साझे वर्गहितों के आधार पर संगठित हो कर अपने-आपमें-वर्ग से अपनेलिए-वर्ग बनेगा। दोनों के बीच का लिंक है वर्गचेतना। वह आएगी शासक वर्गों द्वारा निर्मित युगचेतना से प्रभावित सामाजिक चेतना के जनवादीकरण से, यानि, वर्गचेतना के प्रसार से, न कि पार्टी लाइन से उन्हें हांकने से। बुर्जुआ पार्टियों की ही तरह कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने जनाधार को संख्याबल से जनबल में न बदल सकां और पार्टी लाइन की भक्तिभाव से उन्हें हांकती रहीं। वह संख्याबल खिसककर दूसरी भक्तिभाव के हवाले हो गया। दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के पराभव का यह एक प्रमुख कारण रहा है।
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