कॉमरेड शिखा और साथी प्रेममणि जी, आप दोनों लोग एकपक्षीय व्याख्या कर रहे हैं, समाजवाद पर समयांतर की लेखमाला के आठवें और अंतिम खंड में इस पर लिख रहा हूं। अभी लंबे कमेंट की गुंजाइश नहीं है। लेनिन-रॉय डिबेट पर किसी ने जेयनयू में पीयचडी की है। संक्षेप में, यह कि लेनिन की भारतीय परिस्थिति की समझ मार्क्सवादी थी और रॉय की किताबी। लेनिन उन हालात में कांग्रेस नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को प्रगतिशील मानते थे और उनकी थेसिस के अनुसार, अपनी अस्मिता विसर्जित किए बिना कम्युनिस्टों को राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सेदारी करना चाहिए और उसके क्रांतिकारी तत्वों को अपने साथ जोड़ने की कोशिस। 1928 में कॉमिन्टर्न की छठीं कांग्रेस ने रॉय को निकालकर रॉय की अदूरदर्शी लाइन अपना ली। रॉय का मानना था कि कांग्रेस साम्राज्यवाद से अंततः साम्राज्यवाद से समझौता कर लेगी और सर्वहारा (औद्योगिक मजदूर) अपने बल पर साम्राज्य विरोधी; बुर्जुआ जनतांत्रिक और समाजवादी क्रातियां करने में सक्षम है और कम्युनिस्टों को आंदोलन से अलग रहना चाहिए। रॉय की शेसिस पूरक थेसिस के रूप में स्वीकृत हुई। लेनिन की थेसिस के तहत 1928 तक कम्युनिस्ट डब्लूपीपी के जनसंगठन के नाम से आंदोलन में शरीक हुए और पार्टी के जनाधार बनना शुरू हुआ। डेडयुनियन बनी-बढ़ी जो रॉय के निष्कासन के बाद दोफाड़ हो गयी। 1934 में जब कॉिमंटर्न ने संयुक्त मोर्चे की नीति बहाली की तब कम्युनिस्ट निजी हौसियत से कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी में शामिल होकर आंदोलन में दुबारा शरीक हुए।
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