बगावत की पाठशाला:
संघर्ष और निर्माण
पाठ 3:
मार्क्सवाद क्या है?
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद 2
द्वद्वात्मक
भौतिकवाद पर पहले पाठ के कुछ सवालों के जवाब अगली क्लास के लिए छोड़ दिया था, यह पाठ उन्ही सवालों से शुरू करता
हूं। एक मित्र ने पूछा जड़ वस्तु से विचार कैसे पैदा हो सकता है?
पाठ 1 में बताया गया था कि विचार हवा से नहीं
आते भौतिक वस्तुओं के इंद्रियबोध पर चिंतन से। इमा (मेरी छोटी बेटी), बहुत छोटी थी
(3 साल के कम), जिद कर बैठी की उसे फल खाना है। जो भी फल दो तो “अमरूद नहीं फल”;
अंगूर नहीं फल” ........ बड़ी समस्या? मैं उसे लेकर फल लेने निकल पड़ा। एक ठेले पर
रसभरी बेचने वाला दिख गया, उसने शायद तब तक रसभरी खाया नहीं होगा। मैंने कहा भाई यह एक
“झोंपा फल दे दो”, और फल खाकर वह चुप हो गई। अगर रसभरी के बारे में अंगूर की तरह
जानती होती, तो मैं क्या खिलाता? फल नाम की कोई ठोस वस्तु तो होती नहीं। फल वस्तु
नहीं बल्कि वस्तु का अमूर्त विचार है। अगर आम, अमरूद जैसी विशिष्ट समानधर्मा
वस्तुओं का विचार है। यानि सार्वभौमिक, अमूर्त विचार एक खास तरह की विशिष्ट
वस्तुओं का सामान्यीकरण (जनरलाइजेसन) है। विशिष्ट से सामान्य की व्युत्पत्ति को
आगमात्मक (इंडक्टिव) और सामान्य से विशिष्ट की व्युत्पत्ति को सिद्धांत की
निगमात्मक पद्धति कहते हैं। (यह सामान्य जानकारी जानकारों के लिए नहीं है।) यह
उदाहरण मैं प्लेटो के विचारलोक का सिद्धांत पढ़ाते समय देता हूं। इमा उसका अब
रॉयल्टी मांगती है, मैं उसकी नाजायज मांग मानता नहीं यह अलग बात है।
पिछले दोनों
पाठों में मार्क्स के ‘थेसेस ऑन फॉयरबाक’ के हवाले से
बताया गया है कि यथार्थ वस्तु और विचार की द्वंदवात्मक एकता है। इस द्वंद्व को भी
न्यूटन के गति के सिद्धांतों से समझा जा सकता है। गति का न्यूटन का दूसरा (शायद,
फीजिक्स की किताब छुए 44 साल हो गए) नियम है कि स्थिर वस्तु को गतिमान बनाने के
लिए या गतिमान वस्तु को रोकने के लिए वाह्य बल की जरूरत होती है। वस्तु का विचार अस्तित्व
में आने के बाद वाह्य बल बन जाता है और इतिहास और वस्तु तथा विचार के निरंतर
द्वंद्व से इतिहास आगे बढ़ता है। लते हैं – प्रगतिशील और प्रतिगामी। इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता, लेकिन खतरनाक अस्थाई
यू टर्न्स आ सकते हैं। लेकिन इतिहास अंततः आगे ही बढ़ता है, पाषाणयुग से साईबर युग
तक मानव विकास की यात्रा इसका चश्मदीद गवाह है।
गति के न्यूटन के तीसरे सिद्धांत के अनुसार, हर क्रिया की विपरीत
प्रतिक्रिया होती है। प्रतिक्रिया वस्तु की यथास्थिति में बने रहने की जड़ता की
होती है, यानि वस्तु के आंतरिक प्रतिरोध की। यथास्थिति की जड़ता की प्रतिक्रिया से
अधिक विचारों के प्रगतिशील वाह्य बल लगते हैं तो इतिहास आगे बढ़ता है, वरना अस्थाई
जड़ता में जकड़ जाता है। विचार तो अमूर्त है, उसकी मूर्त अभिव्यक्ति मानव के
चैतन्य प्रयास में होती है। लौकिक यथास्थिति वस्तु है जिससे निकले विचार वस्तु को
बदलने का प्रयास करते हैं। यथास्थिति (वस्तु) से बरकरार रखने में विशेषाधिकार प्राप्त तत्वों के निहित
स्वार्थ जुड़ जाते हैं क्योंकि उन्हें अपने विशेषाधिकार किसी-न-किसी तर्क से
समुचित लगते हैं जो इसे बदलने के चैतन्य मानव प्रयासों का विरोध करेंगे। इसी
क्रिया-प्रतिक्रिया में उतार चढ़ाव के साथ इतिहास आगे बढ़ता है। मसलन
विश्वविद्यालय व्यवस्था प्रोफेसरों की आजीविका का साधन है, इसमें बदलाव का वे
विरोध करेंगे। आइए एक और परिचित उदाहरण लेते हैं। हिंदू शब्द ऊंची-नीची जातियों के
एक समुच्चय की अभिव्यक्ति है। जातिवाद (यथास्थिति – वस्तु) से विशेषाधिकार प्राप्त
जातियों के निहित स्वार्थ जुड़े हैं, वे इसे बरकरार रखने की कोशिस करेंगे और इसकी
विसंगतियों से अवगत जातियां और लोग इसे बदलने की। हमारे छात्र जीवन से अब तक
क्रिया-प्रतिक्रिया की यह यात्रा यहां तक पहुंची है कि जहां दलित को अछूत माना
जाता था वहां कोई सार्वजनिक मंच से नहीं कह सकता कि वह जात-पांत में विश्वास करता
है कितना बड़ा जातिवादी क्यों न हो। वही हाल पित्रिसत्तात्मकता (मर्दवाद) का है।
हमारे छात्रजीवन में लोग लड़कों को पढ़ने बार भेजते थे लड़कियों को नहीं। मैंने
पहले पाठ के एक सवाल के जवाब में मैंने बताया था कि मुझे अपनी बहन को पढ़ाने के
लिए कितनी मशक्कत करनी पड़ी थी। लड़की ज्यादा पढ़कर क्या करेगी? कलेक्टरी थोड़े ही
करानी है आदि-आदि। लड़कियों की आजादी को लेकर लोगों के दिमाग में एक अजीब अमूर्त
भय था (आज भी है)। लेकिन जेंडर समानता के विचार, लड़कों के समान लड़कियों के
शिक्षा के अधिकार के विचार और पितृसत्तामक सामाजिक ढांचे के द्वंद्वात्मक
क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप आज किसी का साहस नहीं है कि कहे वह बेटा-बेटी में
फर्क करता है। एक बेटे के लिए 5 बेटियां भले पैदा कर ले। यह स्त्रीवाद की
सैद्धांतिक विजय है।
उपरोक्त परिचित
मिशालों से द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दो नियम निकलते हैं। पहला, परिवर्तन प्रकृति
का स्थाईभाव है। निरंतर, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन एक अवस्था के बाद
क्रांतिकारी, गुणात्मक परिवर्तन की तरफ बढ़ते हैं। मार्क्सवादी शब्दावली में
व्यवस्था के अंतर्विरोध परिपक्व हो जाते हैं और क्रांतिकारी गुणात्मक परिवर्तन का पथ
प्रशस्त करते हैं। वैसे तो कोई भी परिवर्तन विशुद्ध मात्रात्मक नहीं होता। स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी; दलित प्रज्ञा और
दावेदारी का उफान क्रमिक, मात्रात्मक परिवर्तन के ज्वलंत उदाहरण हैं। क्रांति कारी
गुणात्मक परिवर्तन तो क्रमशः मर्दवाद और जातिवाद से विनाश के बाद ही होगा।
आज की क्लास बहुत
लंबी हो गयी। मॉफी चाहता हूं। ऊपर जिक्र कर ही दिया तो दूसरे नियम का परिचय दे
दूं, विस्तृत चर्चा अगली क्लास में। यह वाद-प्रतिवाद-संवाद
(थेसिस-एंटीथेसिस-सिंथेसिस) का चर्चित नियम है। दो विपरीतों के निषेध तीसरा तत्व
पैदा होता हैं जो दोनों से भिन्न होता है लेकिन दोनों के तत्व इसमें होते हैं। इसे
केमिस्ट्री के हाइड्रोक्लोरिक एसिड (एसिटिक) और सोडयम हाइड्राक्साइड की रासायनिक
क्रिया के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है।
HCl + NaOH=NaCl+H2O
दो विपरीत
रासायनिक गुणों वाले तत्व पारस्परिक निषेध की क्रिया से तीसरे बिल्कुल भिन्न तत्व
पैदा करते हैं। शरीर को हानिकरक दो विपरीत तत्वों की द्वंद्वात्क एकता से तीसरा
तत्व बना जो जीवन के लिए अनिवार्य है।
हेगेल और मार्क्स
के बारे में एक अच्छा सवाल एक साथी ने पूछा है, उसका जवाब अगली क्लास में, दर-असल
तभी क्लास शुरू होगी परिभाषा के साथ, समाज-विज्ञान में परिभाषा अनिवार्य है। वैसे
क्लास भूमिका (ओरियंटेसन लेक्चर) से छोटा भी हो सकता है।
वर्चुअल दुनिया
का यह क्लास लंबा हो गया, अब वास्तविक दुनिया के क्लास की तैयारी कर लूं। पहली
स्त्री दार्शनिक, मेरी वॉलस्टोनक्रॉफ्ट (1759-1797) के सेक्स और नैतिकता पर विचार
पढ़ाना है। मैंने वॉलस्टोनक्रॉफ्ट की जीवनी पर अपना एक लेख (अंग्रेजी में) शेयर
किया था, फिर कर दूंगा, यदि कोई साथी हिंदी अनुवाद का समय निकाल सकें तो आभारी
रहूंगा।