रूसी क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद पर लेखमाला: भाग 8
1905
की रूसी क्रांति
1917 क्रांति का ड्रेस रिहर्सल
ईश मिश्र
मार्क्स और एंगेल्स ने 1845 में जर्मन विचारधारा में लिखा है,
“शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, यानि जिस वर्ग
का भौतिक शक्तियों पर प्रभुत्व होता है, बौद्धिक शक्तियों पर भी उसी का प्रभुत्व
होता है। भौतिक उत्पादन के साधनों पर जिस वर्ग का नियंत्रण होता है, बौद्धिक
उतपादन के साधनों पर भी उसी का नियंत्रण होता है, मोटे तौर पर, बौद्धिक उत्पादन के
साधनों से वंचित वर्ग के विचार इन्ही विचारों द्वारा निर्धारित होते हैं।” वे इसे युग का विचार या युग चेतना कहते हैं, जो वर्ग वर्चस्व को
वैचारिक बुनियाद है। पूंजीवाद उपभोक्ता सामग्री का ही उत्पादन नहीं करता, परंपरा,
रीति-रिवाज शिक्षा, मीडिया, खेल-खूद, सामाजिक-आध्यात्मिक उत्सव आदि वैचारिक
उपकरणों से विचारों या विचारधारा का भी निर्माण करता है। विचारधारा एक मिथ्या
चेतना है क्योंकि यह एक खास सोच के निष्कर्षों को अंतिम सत्य के रूप में पेश करती
है या फिर टीना (देयर इज नो अल्टरनेटिव) सिंड्रोम के तहत, विकल्पहीनता के बहाने अपरिहार्य
बताती हैं। विकल्पहानता मुर्दा कौमों की निशानी है, जिंदा कौमें कभी विकल्पहीन
नहीं होतीं। इस युग चेतना का एक प्रमुख घटक है, राष्ट्रवाद। जैसा कि इस लेखमाला के
पहले दो लेखों में चर्चा की गयी है कि राष्ट्रवाद आधुनिक राष्ट्र-राज्य की आधुनिक
विचारधारा है जैसे मध्ययुगीन राजशाहियों की विचारधारा धर्म था। शासक वर्गों द्वारा
अपने हितों के अनुकूल निर्मित युगचेतना सामाजिक चेतना को को प्रभावित करता है।
विचारधारा शोषक और शोषित दोनों को प्रभावित करती है। शासक विचार ही शासित के विचार
भी बन जाते हैं, जिसे बीसवीं शताब्दी के क्रांतिकारी चिंतक ऐंतोनियो ग्राम्सी
वर्चस्व के सिद्धांत में खूबसूरती से समझाते हैं। वैचारिक वर्चस्व की बुनियाद पर
ही भौतिक वर्चस्व टिकता है। इसलिए क्रांतिकारी का मकसद बुनियाद उखाड़ना है। फ्रांसीसी
क्रांति के बाद प्रोपगंडा सभी क्रांतिकारी समूहों की प्रमुख गतिविधियों में रहा
है। इसीलिए मार्क्स की दर्शन की गरीबी में मजदूरों के क्रांतिकारी रूपांतरण
का दारोमदार वर्गचेतना के विकास यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण है।
लेनिन युगचेतना के विरुद्ध वर्गचेतना के
प्रसार से सामाजिक चेतना के जनवादीकरण का उत्तरदायित्व क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों
को देते हैं, जिसे ग्राम्सी ने मजदूरों के जाविक बुद्धिजीवी के रूप में चिन्हित
किया है। मार्क्स एटींथ ब्रुमेयर तथा पहले फ्रांस में गृहयुद्ध में
1848 और 1871 की प्रतिक्रांतियों में युद्धोंमादी राष्ट्रवाद की विचारधारा की अहम
भूमिका को रेखांकित किया है। ‘राष्ट्रीय शत्रु’ जर्मनी समेत दुनिया की तमाम
प्रतिक्रियावादी ताकतों की मदद से वर्साय में बैठी ‘राष्ट्रीय’ सरकार द्वारा,
राष्ट्रीय राजधानी, पेरिस में, विश्व-गणतंत्र की स्थापना के लक्ष्य के
मजदूरों के समातामूलक जनतांत्रिक स्वशासन, पेरिस कम्यून को कुचलने के लिए
अभूतपूर्व रक्तपात में राष्ट्रवाद आड़े नहीं आया। जर्मन साम्राज्य के चांसलर,
बिश्मार्क को भी बोनापार्ट के साथ बंद ‘राष्ट्रीय’ शत्रु, फ्रांसिसी सैनिकों को
रिहा करने में कोई ‘देशद्रोही’ ग्लानि नहीं हुई। यहां मकसद राष्ट्रवाद पर विस्तृत
चर्चा का नहीं, सिर्फ यह रेखांकित करना है कि राष्टवाद आधुनिक राष्ट्र-राज्य
की, यानि पूंजीवादी राज्य की, यानि कि पूंजीवाद की अपरिभाषित विचारधारा है, जो
मजदूरों के संगठित विद्रोह के संदर्भ में बदल जाती है। नेपाल में माओवादी क्रांति
के दौरान भारत और अमरीका के शासक वर्ग उतने ही चिंचित थे जितने नेपाली। कल्पना
कीजिए, यद्यपि यब बहुत ही काल्पनिक कल्पना है, पाकिस्तान में सर्वहारा क्रांति हो
जाती है, पेरिस कम्यून का इतिहास बताता है कि क्रांति कुचलने में भारत का शासकवर्ग
‘राष्ट्रीय’ शत्रु की भरपूर मदद करेगा, प्रत्यक्ष और परोक्ष। जैसा कि पिछले लेख
में बताया गया है, दूसरे इंटरनेसनल की मजदूरों की एकजुटता भी युद्धोंमादी
राष्ट्रवाद के हवन कुंड में स्वाहा हो गयी। स्थिति आज भी वही है, युद्धविरोध को
आसानी से देशद्रोह करार दिया जाता है।
जैसा कि पिछले लेख में जिक्र है कि 1875 में मार्क्सवादी सिद्धांतों पर गठित जर्मनी की सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी 1812 तक जर्मन राजनीति में एक उल्लेखनीय ताकत बन गयी थी दूसरे इंटरनेसनल की सबसे बड़ी घटक पार्टी थी। इंटरनेसनल के युद्धविरोधी अभियान के साथ सबसे बड़ी गद्दारी भी की, न सिर्फ इसने संसद में युद्ध के पक्ष में मतदान किया, बल्कि युद्धोंमादी राष्ट्रवाद की अगली कतार में खड़ी हो गयी। 1917 में रूसी क्रांति के प्रति पार्टी के प्रतिकूल प्रतिक्रिया के मद्देनजर क्रांतिकारी समूह अलग होकर पहले स्पार्टकस लीग बनाया, फिर इंडेपेंडेंट सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी और अंततः जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी। रोजा लक्जम्बर्ग इसके प्रमुख नेताओं में थीं। विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है, युद्धोपरांत वाइमर रिपब्लिक में सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी बड़ी संसदीय पार्टी के रूप में उभरी और सरकार में शिरकत भी की। युद्ध
शुरू होने थोड़ा पहले फ्रांस के
प्रमुख युद्धविरोधी नेता जीन जॉवर्स की
हत्या इंटरनेसनल युद्विरोधी सिद्धांत की विदाई का प्रतीक बन गया और फ्रांस
में युद्धविरोधी स्वर शांत हो गया।
रसियन सोसल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी(आरयसयलडीपी) के दो घटकों बॉलसेविक और मेनसेविक पार्टियों को छोड़कर, अन्य देशों की पार्टियां भी जनतंत्र की सुरक्षा के या प्रतिरक्षात्मक युद्ध के नाम पर अपनी अपनी सरकारों के युद्ध अभियान में शरीक हो गए। इस तरह 1914 में युद्ध विरोधी अभियान और यद्धकालीन संकट का इस्तेमाल अपने अपने देशों वर्गसंघर्ष को तेज करने के प्रस्ताव को धज्जियां उड़ गयीं और बिना औपचारिक घोषणा के दूसरा इंटर्नेसनल – सोसलिस्ट इंटर्नेसनल बिखर गया और मजदूरों की अंतरराष्ट्रीय एकजुटता का दूसरा दौर अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूरी किए बिना खत्म हो गया। इंटरनेसनल की रूसी इकाई का बॉलसेविक और मेनसेविक घटक इंटरनेसनल के संकल्प के प्रति निष्ठावान रहे, जिसकी परिणति, मार्च 1917 की क्रांति हुई। मेनसेविक तथा क्रांति के अन्य भागीदार क्रांति को यहीं रोककर पूंजीवादी संसदीय प्रणाली की स्थापना करने के चक्कर चलाने लगे। लेकिन बॉलसेविक, तमाम प्रतिकूलताओं और दमन के बावजूद, वर्गसंघर्ष को उसकी तार्किक परिणति तक ले जाकर सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना के मकसद के प्रति निष्ठा के साथ संघर्ष करते रहे, जिसके परिणाम स्वरूप क्रांति के दस दिनों ने दुनिया हिला दी और शुरू हुआ मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता का तीसरा दौर। इंटरनेसनल के सबसे बड़े और प्रभावशाली घटक जर्मन सोसल डिमोक्रेटिक पार्टी ने कमनिगाही के चलते अवसरवाद में दूसरे इंटरनेसनल के लक्ष्यों के साथ सबसे बड़ी गद्दारी की, जिसकी तार्किक परिणति, जर्मनी में फासीवाद के उदय में हुई।
लेनिन ने
जून 1915 में एक लंबे लेख, दूसरे इंटरनेसनल का पतन में इस घटनाक्रम की सटीक
समीक्षा किया है। “वर्ग चेतना से लैश मजदूरों के लिए समाजवाद गंभीर निष्ठा का
मामला है, पेटीपर्जुआ समझौताबाद या साष्ट्रवीदी-विपक्ष की लालसा छुपाने की आसान
आड़ नहीं। ज्यादातर आधिकारिक सोसल डेमोक्रेटिक पार्टियां समझती हैं कि इंटर्नेसनल
का पतन स्टटगार्ड और बास्ले सम्मेलनों में जोश-खरोश बचनबद्ध संकल्प की घोषणाओं और
इन सम्मेलनों के प्रस्तावों से इनके शर्मनाक विश्वासघात का नतीजा है। ……… यदि इस सवाल को वैज्ञानिक दृष्टि से, यानि अधुनिक समाज के वर्ग समंबंधों
को ध्यान में रखकर करें तो कहना पड़ेगा ज्यादातर सोसल डेमोक्रेटिक पार्टियां अपनी
सरगना जर्मन पार्टी के पदचिन्हों पर चलते हुए सर्वहारो के विरुद्ध अपने
सेनाध्यक्षों और अपनी सरकारों के साथ जा मिलीं। गौरतलब है कि जर्मन सोसल
डेमोक्रेटिक पार्टी इंटरनेसनल की सबसे बड़ी और सर्वाधिक प्रभावशाली घटक थी।.....”
यहां दूसरे इंटरनेसनल
के पतन या जर्मन सोसल डेमोक्रेटों के विश्वाशघात की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश
नहीं है। लेनिन के उपरोक्त लेख में इसकी विस्तृत और व्याख्या-समीक्षा की गयी है और
भविष्य की क्रांतिकारी संभावनाओं की भी। लेनिन और उनके साथी सिर्फ इंटरनेसनल के
पतन की समीक्षा नहीं कर रहे थे, रूस में जारशाही के विरुद्ध क्रांति और मजदूरों की
अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता के पुनर्गठन की तैयारी भी। “यह एक निर्विवाद मार्क्सवादी
मान्यता है कि क्रांतिकारी परिस्थितियों के बिना क्रांति नामुमकिन है; और यह भी कि
हर क्रांतिकारी परिस्थिति की परिणति हमेशा
क्रांति में नहीं होती”। [कलेक्टेड वर्क्स, खंड 21, (पेज 205-259), प्रॉग्रेस पब्लिशर्स, 1974)
मार्क्स ने लिखा है कि मनुष्य अपना इतिहास खुद निर्मित करता है लेकिन
अपनी चुनी हुई परिस्थितियों में नहीं, बल्कि अतीत से विरासत में मिली परिस्थितियों
में। 19वीं सदी में औद्योगिक पश्चिमी यूरोप के समानांतर और संपर्क में कृषिप्रधान
रूस में व्यवस्था विरोधी अनेक आंदोलन चल रहे थे और और विचार पनप रहे थे जिन्होंने 1905 और 1907 की
क्रांतियों का पथ प्रशस्त किया। हर्जन और बकूनिन का जिक्र पहले किया जा चुका है
लेकिन ये दोनों ज्यादातर पश्चिमी यूरोप मे प्रवासी ही रहे। 1860 के दशक में, किसान
क्रांति के मंसूबे के साथ शहरों के शिक्षित युवाओं ने गांवों में जाकर किसानों में
जनजागरण की ठानी, लेकिन इनके पास न तो कोई ठोस सैद्धांतिक समझ थी, न ही समाजवाद के
निर्माण की कोई रूप रेखा। ये पूंजीवादी संक्रमण के बिना आदिम साम्यवाद की वापसी
चाहते थे।
·
नारोडनिक (लोकवादी) आंदोलन
विविधतापूर्ण नारोडनिक्स (लोकवादी) आंदोलन
के विस्तार मे जाने की गुंजाइश नहीं है, लोकिन संक्षिप्त चर्चा आवश्यक लगती है।
इनका एक खास नारा था, ‘लोगों के बीच चलें’। वैसे न तो इनका कोई संगठनात्मक ढांचा
था न ही समाजवाद के स्वरूप की समझ। सामंती शोषण को जघन्य बुराई मानने के बावजूद ये
मुक्ति अतीत में ढूंढ़ते थे। इनका मानना था रूस जैसे कृषिप्रधान देश में किसानों
के बीच राजनैतिक प्रोपगंडा के माध्यम से जारशाही के विरुद्ध व्यापक जनमत तैयार
किया जा सकता है। पश्चिमी यूरोप के प्रबोधन आंदोलन की ही तरह यह एक बौद्धिक आंदोलन
था जो 1860 के दशक में शुरू हुआ और 1870 के दशक में पूरी लय में आ गया। वे मार्क्स
के अर्थतंत्र पर निजी स्वामित्व के विरोध और सामूहिक स्वामित्व के विचारों से
प्रभावित थे लेकिन वे औद्योगिक सर्वहारा के बजाय किसानों को क्रांति का वाहक मानते
थे और कृषक साम्यवाद के पक्षधर थे। ऐतिहासिक भौतिकवाद के आदिम साम्यवाद से
सामाजवादी साम्यवाद की यात्रा में विकास के विभिन्न चरणों की अपरिहार्यता के
सिद्धांत को खारिज कर आदिम साम्यवाद से
सीधे आधुनिक समाजवाद में संक्रमण का सिद्धांत दिया। उनका
मानना था कि सत्ता में परिवर्तन से विकास का पूंजीवादी चरण लांघा जा सकता था।
पारंपरिक सामुदायिक की संस्थाओं की बुनियाद पर उत्पादन और वितरण की समाजवादी
प्रणाली स्थापित की जा सकती है। खाते-पीते घरों के सैकड़ों पढे-लिखे शहरी युवा
किसानों की भेषभूषा धारण कर गांवों किसानों के बीच में रहकर उनमें व्यवस्था के
विरुद्ध विद्रोह की भावना भरने लगे। जारशाही सरकार को पता चलते ही भयंकर पुलिस दमन
शुरू हो गया। गिरफ्तारियों और राजनैतिक
मुकदमों का दौर चला। निरक्षर किसानों पर भी प्रचार का उल्टा असर हुआ। कई मामलों
में उन्होने निष्ठावान बुद्धिजीवियों को पुलिस के हवाले कर दिया। किसानों की
विरक्ति और सरकारी दमन के परिणाम स्वरूप लोकवादियों ने भूमिगत रह कर
हाकिमों की हत्या का क्रांतिकारी आतंक का रास्ता अपनाया। इन हालात में संगठित
प्रयास की जरूरत थी और पहला लोकवादी (नरोड्निक) संगठन था, ज़ेम्ल्या ई वोल्या
(जमीन और आजादी)। शुरू में यह किसानों के बीच प्रचार का काम करता रहा, लेकिन
पुलिस दमन में बढ़ोत्तरी से भूमिगत रहकर क्रांतिकारी आतंकवादी कार्रवाइयों से
जनाक्रोष को हवा देने का रास्ता अख्तियार किया। 1879 में ज़ेम्ल्या
ई वोल्या रणनीतिक मतभेदों के चलते दो-फाड़ हो गया। भूमिगत सशस्त्र
कार्रवाई से जनजागरण के मंसूबे वाला नरोदनया वोल्या (लोक इच्छा) जो 1881
में ज़ार अलेक्ज़ेडर द्वितीय की हत्या के बाद की धरपकड़ के बाद बिखर गया। दूसरा
धड़ा चोर्नी पेरेदेल (काला पुनर्विभाजन) खुले संगठन के बीच राजनैतिक जागरण
का काम करता रहा। 1880 के दशक में इसके सदस्य गांव छोड़कर शहरी सर्वहारा में काम
करने लगे। वीसवीं सदी में लोकवादी विचारधारा की वाहक बनी, रिवोल्यूसनरी
सोसलिस्ट पार्टी, जो 1905 और मार्च, 1917 की क्रांतियों में सहभागी थी।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि लोकवादी
कृषक साम्यवाद अतीतवादी होने के नाते अव्यवहारिक है जो रूसो की तरह समतामूलक
ग्रामीण समाज बनाना चाहते थे। रूसो उदीयमान औद्योगिक समाज की अपरिहार्यताओं और
अंतर्विरोधों के मर्म से अनभिज्ञ थे लोकवादियों का कृषक साम्यवाद
ऐतिहासिक विकास के पूंजीवादी चरण की अपरिहार्यता के सिद्धांत को खारिजकर, कृषक
समाज के पारंपरिक पारस्परिक सहयोग के सामूहिकतावादी सिद्धांतो पर समाजवाद के
निर्माण के पक्षधर थे। इस चर्चा को 1914 के लेनिन के लेख द लेफ्ट नारडोनिक्स
(लोकवादी वाम) से एक उद्धरण से समाप्त करना अनुचित न होगा। “व्यापारिक उत्पादन के समाज में हर छोटा किसान का विनिमय
के क्षेत्र में शामिल होना और शिरकत में बढ़ोत्तरी अवश्यंभावी है। धीरे धीरे बाजार
पर उसकी निर्भरता बढ़ती जाती है, और स्थानीय या राष्टीय ही नहीं, विश्व बाजार पर
भी।............. पूंजीवाद का प्रसार दुनिया में हर तरफ हो रहा है, कोई भी देश
इसका अपवाद नहीं है। .......... जिसे भी राजनैतिक अर्थशास्त्र का कखग मालुम है, वह
जानता है कि रूस की सामंती सर्फ प्रणाली का पूंजीवाद में संक्रमण हो रहा है। ....
दोनों ही प्रणालियां श्रम के शोषण पर आधारित हैं; ......। लेकिन सामंती प्रणाली की
विशिष्टता लंबी जड़ता तथा मेहनतकश निरक्षर और दबे-कुचले होना तथा श्रम उत्पादकता
का निम्न स्तर है। पूंजीवाद की विशिष्टताएं हैं: तेज गति से आर्थिक और सैमाजिक
विकास; श्रम की उत्पादकता में अभूतपूर्व वृद्धि; मेहनतकशों की दास मानसिकता का
उन्मूलन और उनके अंदर संगठित रूप से समुचित सामाजिक भूमिका की योग्यता की चेतना का
संचार।....... जमीन हस्तांतरण की आजादी पर प्रतिबंध के हिमायती वाम लोकवाद को
मार्क्सवादियों ने हमेशा से समाजवादी प्रतिक्रियावाद माना है।”
·
मार्क्सवादी संगठनों का प्रादुर्भाव
मार्क्सवादी दर्शन के
लिए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद संज्ञा का ईजाद प्रमुख सूसी मार्क्सवादी
प्लेखानेव ने किया, मार्क्स ने खुद इस शब्द का कहीं नहीं इस्तेमाल किया है। इसीलिए
मार्क्सवाद को एक गतिशील विज्ञान माना जाता है। मार्क्स के विचार रूस में कुछ
बौद्धिक तपकों में पहले इंटरनेसनल के समय से ही विमर्श में थे। पेरिस
कम्यून के पतन के उदास मौसम में बकूनि-मार्क्स विवाद के बाद से विश्वविद्यालय
कैंपसों में, मार्क्सवाद से प्रभावित शिक्षक-छात्र गर्व से खुद को मार्क्सवादी
कहते थे। 1890 के दशक में ज़ार निकोलस द्वितीय के शासनकाल पूंजीवादी विकास की रफ्तार में तेजी आई और
साथ-साथ समाजवादी विचारों के प्रसार और जनाक्रोश की सांगठनिक अभिव्यक्तियों की
रफ्तार भी बढ़ी। 1883 में गॉगरी प्लेखानोव समेत 5 प्रवासी रूसियों ने जेनेवा में श्रम-मुक्ति
समूह (इमैंसिपेसन ऑफ लेबर ग्रुप) का गठन किया. इनमें से एक, लिओ ड्वायच को
1884 में गिरफ्तार कर साइबेरिया भेज दिया गया। इस ग्रुप का प्रमुख योगदान था
मार्क्सवादी साहित्य का रूसी अनुवाद और उनका वितरण। बाद में यह समूह नरोडनिकों का
पमुख वैचारिक प्रतिद्वंदवी बन गया। 1883 और 1885 में समूह ने रूसी सामाजिक
जनतांत्रिक पार्टी के गठन की तैयारी में कार्यक्रम तथा घोषणापत्र तैयार किया जिसे
ग्रुप की तरफ से वितरित किया गया। 1889 से ही यह समूह दूसरे टरनेसनल में
रूस सामाजिक जनतंत्रवाद का प्रतिनिधित्व करता रहा। लेनिन ने बाद में लिखा कि इस
समूह ने “रूस में सामाजि-जनतांत्रिक आंदोलन की सैद्धांतिक बुनियाद रखा जो मजदूर
वर्ग के आंदोलन की शुरुआत साबित हुआ।” बाद में ग्रुप ने नाम बदलकर मजदूर वर्ग
की मुक्ति के संघर्ष(लीग फॉर स्ट्रगल फॉर इमेंसिपेसन ऑफ वर्किंग क्लास) कर
लिया।
1898 में सभी रूसी
क्रांतिकारी समूहों को एक मंच पर लाने और लोकवादी वाम प्रतिक्रियावाद के
सिद्धांतिक विकल्प के रूप में मिंस्क में रसियन सोसल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी
(आरयसडीयलपी) का गठन हुआ। अपने अस्तित्व के अधिकांश समय पार्टी अवैध थी और
संस्थापना सम्मेलन के सभी 9 सदस्यों को रूसी साम्राज्य की पुलिस द्वारा गिरफ्तार
कर लिया गया। 1903 में पार्टी के दूसरे सम्मेलन के पहले व्लादीमीर लेनिन के छद्म
नाम से व्लादीमीर इलिच उल्यानोव नामक एक युवक शामिल हुआ, जिसने 1902 में रूस की
तत्कालीन परिस्थितियों में मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य से क्रांति की भावी योजना
चिन्हित करते हुए, ‘क्या करना है?’, शीर्षक से एक पुस्तिका प्रकाशित की थी।
दूसरे सम्मेलन में मार्क्सवाद की अलग-अलग व्याख्या के चलते सैद्धांतिक मतभेद इतने
गहरे हो गए की पार्टी बॉल्सेविक और मेन्सेविक (बहुमत और अल्पमत) में
विभाजित हो गयी। मेन्सेविक धड़े के नेता मोर्तोव थे और बोल्सेविक के
लेनिन। 1907 में फिर दोनों धड़े साथ आए लेकिन अपना अस्तित्व भी बनाए रखा। 1917 की
क्रांति तक बोल्सेविक आरयसडीयलपी का अल्पमत धड़ा ही बना रहा जिसने क्रांति के बाद
खुद को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ सोविय यूनियन के रूप में गठित किया।
लेनिन ने 1905 की क्रांति को 1917 की
क्रांति का ड्रेस रिहर्सल कहा था। सितंबर 1917 में भूमिगत (प्रवासी) दिनों में
लिखे और 1918 में छपे, राज्य और
क्रांति की पोस्ट-स्क्रिप्ट में लेनिन लिखते हैं कि 1905 और 1917 की
क्रांतियों के अनुभव वाला अध्याय पर काम अक्टूबर की क्रांतिकारी उथल-पुथल के चलते
नहीं लिख पाए, लेकिन “क्रांति में शिरकत का अनुभव क्रांति के बारे में लिखने से
ज्यादा सुखद और लाभदायक है। मुझे यह बहुत प्रेरक वक्तव्य लगता है। राज्य और
क्रांति में भले ही 1905 और 1907 की क्रांति का अध्याय भले न जोड़ पाए, लेकिन
संकलित रचनाओं के सिंहावलोकन से कि क्रांति के दौरान स्थिति की समीक्षा और आंदोलन
की रणनीति, कार्यक्रम और
मार्क्सवादियों की वांछित भूमिका पर लगातार लिख रहे थे।
1905 की क्रांति 1891 में सत्तासीन हुए ज़ार
निकोलस द्वितीय के निरंकुश कुशासन के विरुद्ध संचित
असंतोष और जनाक्रोश की अभिव्यक्ति थी। इस पर तमाम परिप्रक्ष्यों से बहुत लिखा
जा चुका है, यहां इसकी विस्तृत व्याख्या की गुंजाइश नहीं
है, लेकिन संक्षिप्त
चर्चा जरूरी है। जब कृषि दासता (सर्फडम) उत्पादन
प्रणाली, उत्पादन शक्तियों के पैरों में बेड़ी बन गय़ी और अपने ही भार से चरमराने
लगी तो रूसी सम्राट अलेक्जेंडर द्वितीय ने मुक्ति सुधार अधिनियम, 1861 के
तहत कृषि दासों को मुक्ति मिल गयी लेकिन उन्हें आबंटित जमीन इतनी कम थी और लगान
अधिक कि गुजारा मुश्किल था। जमीन पर स्वामित्व गांव के कम्यून का था और उसमें से
खेती के लिए किसानों को जिसमें से एक टुकड़ा मिला था जिसे न वे बेच सकते थे, न
रेहन रख सकते थे, यानि जमीन से बंधे थे और औद्योगिक सर्वहारा बनने के लिए ‘मुक्त’ नहीं
थे। घरेलू सर्फों (दासों) को जमीन नहीं, केवल मुक्ति मिली जो ‘वैतनिक गुलामी’ के
लिए भी मुक्त थे। औद्योगीकरण बहुत पिछड़ा था, जितना था भी उसमें शोषण, लंबे
कार्यदिवस और काम के दयनीय हालात से औद्योगिक मजदूर बेहाल थे। निकोलस द्वितीय की
निरंकुश जारशाही का शासनतंत्र बेशर्म दमनतंत्र बन गया था जिससे शिक्षित मध्य वर्ग;
शिक्षक-छात्रों में व्यापक असंतोष 1904 तक अपने चरम पर था।
इतिहास गवाह है, जब भी किसी निरंकुश
शासक के शासन की वैधता पर सवाल उठताता है, या जनाक्रोश विस्फोटक होता है तो शासक
किसी वाह्य शक्ति से राष्ट्र की सुरक्षा का हौव्वा खड़ा करता है और युद्धोंमादी
राष्ट्रवाद से, ‘देशभक्ति’ की भावना के संचार की कोशिस। ‘हौव्वा’ की हवाबाजी जब नाकाफी हो तो ‘दुश्मन’
देश से वास्तविक युद्ध छेड़ देता है। 1870 में लुई बोर्नापोर्ट ने फ्रांस में
व्यापक जन-असंतोष और आक्रोश को शिथिल बनाने तथा मजदूरों एवं बुद्धिजीवियों में
पहले इंटरनेसनल के प्रभाव में संगठित हो रहे मजदूरों की वर्गचेतना के अभियान
की धार कुंद करने के मकसद से ‘फ्रांस की गरिमा’ के नाम पर, ‘दुश्मन देश’ जर्मनी से
युद्ध की आत्मघाती घोषणा कर दी थी, जिसका तथा जिसके परिणामों का जिक्र पहले किया
जा चुका है। अहंकारी निरंकुश शासक, सत्ता के मद में इतिहास से सबक नहीं लेता।
निकोलस द्वितीय ने प्रशांत-क्षेत्र में रूस हैसियत बढ़ाने और आंतरिक समस्याओं से
ध्यान हटाने तथा लोगों में ‘देशभक्ति’ की भावना भरने के मकसद से ज़ार निकोलस
द्वितीय ने 1904 में जापान पर हमले का आत्मघाती कदम उठाया और लुई बोर्नापार्ट की
तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा। युद्ध और पराजय की तबाही ने सुलगते जन-असंतोष की आग
में घी का काम किया जिससे उसकी लपटें पूरे रूसी साम्राज्य में फैलने लगीं। हड़तालों, किसान
आंदोलनों और सैनिक विद्रोहों का एक नया दौर शुरू हुआ, जिसकी तत्कालिक
परिणति अक्टबर घोषणा पत्र में हुई, और अंतिम परिणति 1917 की सर्वहारा
क्रांति में। जिसमें ज़ार द्वारा संसद (डूमा) के गठन तथा चुनाव समेत कुछ रियायतों
के वायदे शामिल थे।
22 जनवरी 1905 को रूस के विभिन्न भागों
के हजारों मजदूर जुलूस की शक्ल में, पीटर्सबर्ग के एक पादरी के नेतृत्व में, अपनी
मांगों की याचिका सौंपने ज़ार के विंटर पैलेस गए। उस दिन, खूनी इतवार को
याद करते हुए, क्रांति की बारवीं सालगरह, 22 जनवरी, 1925 को अपने भाषण में कहा,
“पादरी गोपन की अगुआई में विभिन्न जगहों से आए हजारों मजदूर ज़ार को फरियादी
याचिका देने शीतकालीन महल के सामने के मैदान में एकत्रित हुए। गौरतलब है कि ये
मजदूर सोसल डेमोक्रेट नहीं थे, बल्कि धर्मभीरु वफादार प्रजा थे। मजदूरों के हाथों
में प्रतिमाएं थीं। एक पत्र लिखकर गोपन ने उसकी (ज़ार की) निजी सुरक्षा की गारंटी
के साथ लोगों से मिलने का निवेदन किया था। फौज तैनात कर दी गयी। सिपाहियों और जार
के कारिंदों ने मजदूरों पर तलवारों से हमला कर। फौज ने निहत्थे मजदूरों पर
गोलीबारी शुरू कर दी। पुलिस की रिपोर्ट में मृतकों की संख्या 1000 और घायलों की
2000 से अधिक बताया गया है। मजदूरों में अवर्णनीय क्षोभ था। यह 9 जनवरी 1905 की – खूनी-रविवार
– की तस्वीर है।” खूनी रविवार रूस में उथल-पुथल मचा दी। हड़तालों,
प्रदर्शनों की भरमार हो गयी। लेनिन ने 25 जनवरी को लिखा, “रूस में निर्णायक ऐतिहासिक महत्व की
घटनाएं घट रही हैं। जारशाही के विरुद्ध सर्वहारा ने विद्रोह का बिगुल
बजा दिया है। सरकार ने सर्वहारा को विद्रोह के लिए उकसाया। सरकार नें हड़ताल
आंदोलनों को निर्बाध रूप में विकसित होने दिया जिससे जब वह विशाल प्रदर्शन रैली का
रूप लेले और सेना तैनात की जा सके। चाल कामयाब रही। हजारों मजदूर शहीद हुए और
हजारों घायल। यह नजारा था 9 जनवरी के खूनी इतवार का। फौज ने निहत्थे मजदूरों,
स्त्रियों और बच्चों को परास्त कर दिया। ज़ार के मुशाहिदों ने कहा, “हमने उनको
अच्छा सबक सिखा दिया है।” लेकिन सबक का उल्टा असर पड़ा। सेंट
पीटर्सबर्ग में मजदूरों के शांतुपूर्ण प्रतिरोध के दमन से निकली ज्वाला की लपटों
ने सारे रूसी साम्राज्य को गिरफ्त में ले लिया। 2-3 साल पहले भगत सिंह के भांजे और
उनके लेखों के संचयनकर्ता, प्रो. जगमोहन सिंह ने, भगत सिंह की इतनी कम उम्र में
बौद्धिक परिपक्वता पर बातचीत में कहा, “क्रांति का संकट अनभवों को गुणा कर देता है
(क्राइसिस ऑफ रिवल्यूसन मल्टीप्लाइज द एक्सपीरेंसेज)।” इनके इस वाक्य ने, 1905 के
बारे में लेनिन के उपरोक्त लेख की निम्न पंक्तियों की याद दिला दी थी। “मजदूर वर्ग
ने इससे गृह युद्ध की तत्कालिक सीख पासिल कर ली; सर्वहारा की शिक्षा के मामले में
एक दिन में उससे ज्यादा प्रगति कर ली जितनी कि सुस्त और निरर्थकता की अलग-थलग
जिंदगी के महीनों और सालों में न हासिल कर पाता। सेंट पीटर्सबर्ग के बहादुर
सर्वहारा का नारा, “मौत या आज़ादी” पूरे रूस में गूंज रहा है। घटनाक्रम आश्चर्यजनक
तेजी से आगे बढ़ रहा है। सेंट पीटर्सबर्ग में आम हड़ताल का असर तेजी से बढ़ रहा
है। सभी औद्योगिक सार्वजनिक और राज नैतिक गतिविधियां ठप पड़ गयी हैं। सोमवार, 10
जनवरी को भी सेना और मजदूरों में झड़प हुई। सरकारी रिपोर्ट के विपरीत राजधानी के
कई भाग रक्क रंजित हैं। कोलपीनों के मजदूरों ने विद्रोह शुरू कर दिया है। सर्वहारा
खुद को और लोगों को हथियारबंद कर रहा है।” लेनिन ने इस लेख में रूसी साम्राज्य
के विभिन्न भागों में हड़तालों, विद्रोहों और सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमलों का
व्योरेवार विवरण दिया है। पोप ग्योगरी गपोन ने उस खूनी दिन के बाद घोषणा की, अब
हमारा कोई ज़ार नगहीं है, “अब हमारा कोई जार नहीं है, जार और लोगों के बीच खून की
दरिया की विभाजन रेखा खिंच गयी है। जंग-ए-आजादी ज़िंदाबाद।”
1905 में पूरे रूसी साम्राज्य में आम हड़तालें आम बात हो गयी थीं। पूरे रूस
मे लगभग आधे और रूसी पौलैंड में 90% से अधिक मजदूरों ने आम हड़तालों में शिरकत की।
मार्च में सभी शैक्षणिक संस्थानों को जबरन बंद कर दिया गया, सरकार सोचती थी कि
क्रांतिकारी छात्र और शिक्षक घर बैठ जाएंगे। लेकिन वे आंदोलनकारी मजदूरों में
शामिल होकर उसे और गतिशील बनाया। अक्टूबर, 1905 में रेल कर्मियों की हड़ताल
पीटर्सबर्ग और मॉस्को में आम हड़ताल में तब्दील हो गयी। इससे प्रेरित हो सोसल
डेमोक्रेटिक पार्टी के मेनसेविक और बॉलसेविक दोनों धड़ों ने मिलकर अल्पजीवी मंच,
सेंट पीटर्सबर्ग सोवियत ऑफ वर्कर्स डेलीगेट्स का गठन किया। प्लेखानोव और
मोर्तोव के नेतृत्व वाला धड़ा मेनसेविक समझौते का पक्षधर था और लेनिन के नेतडत्व
में ब़लसेविक जारशाही के खिलाफ आर-पार की लड़ाई से वर्गसंघर्ष को त्वरित करने के
पक्षधर थे, प्रतिबद्ध बॉलसेविक लियॉन ट्रॉट्स्की ने समझौते की संभावना को छोड़े
बिना 200 कारखानों में हड़तालों का नेतृत्व किया। मेनसेविकों की समझौतावादी नीति
और उदारवादियों को खारिज करते हुए लेनिन
फरवरी में लिखा, “क्रांति शुरू हो गयी है। खून की
नदियां बह रही हैं। आजादी के लिए गृहयुद्ध की आग धधक रही है।” सर्वहारा के सशस्त्र
क्रांति की तैयारी की हिमायत करते हुए लेनिन ने लिखा था, “हो सकता है सरकार फिलहाल
मामला सुलटा ले लेकिन इस स्थन के बाद क्रांतिकारी मुहिम का
अगला कदम ज्यादा विस्मयकारी होगा। इससे सोसल डेमोक्रेटों को लड़ाकू दस्तों की
लामबंदी का और पीटर्सवर्ग में क्रांति की शुरआत को संदेश प्रसारित करने का मौका
मिल जाएगा। जंग-ए-आजादी के नारे को शहरी गरीबों और लाखों किसानों के बीच लोकप्रिय
बनाना होगा। हर कारखाने में; हर शहर में; हर गांव में क्रांतिकारी कमेटियां गठित
की जाएंगी। क्रांतिकारी आवाम जार के निरंकुश, अधिनायकवादी सरकार की सारी संस्थाओं
को उखाड़ फेंकेगी और संविधान सभा का गठन। फौरी जरूरत है, सरकारी प्रशासन और
संस्थानों को नेस्तनाबूद करने के मकसद से मजदूरों और आम नागरिकों को हथियारबंद
करना, क्रांतिकारी संगठनों का गठन और तख्तापलट की तैयारी जिसके व्यवहारिक आधार पर
हर तरह के क्रांतिकारियों को एकजुट होकर संगठित हमले की है।” लेनिन का मानना था
कि सर्वहारा को शोषण विहान समाज के अपने दूरगामी लक्ष्य के लिए स्वतंत्र रणनीति पर
चलना चाहिए। “लेकिन सोजल डेमोक्रेटिक सर्वहारा
पार्टी की स्वतंत्र रणनीति का यह मतलब नहीं है कि हम क्रांति के निर्णायक क्षणों
में हम साझी क्रंतिकारी शुरुआत की अहमियत ही भूल जाएं। जब जारशाही पर सीधे हमला हो
रहा हो तो हमें उनके साथ कंधे-से-कंधा मिलाकर आगे बढ़ना चाहिए.........।”
सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी के
अप्रेल-मई में
संपन्न तीसरे अधिवेशन
में लेनिन छाए
रहे। मेनसेविकों की
समझौतावादी विचारों पर
उन्होने जमकर हमला
बोला। दिसंबर, 2005 में
लेनिन 5 साल बाद
रूस वापस आए
और बॉल्सेविक पार्टी
की कमान संभाल
लिया। इस समय
तक जार द्वारा
रियायतों की पेशकश
और सुधारवादी पहलकदमी
से क्रांति का
जज्बा थोड़ा शांत
पड़ गया था।
जार निकोलस
द्वितीय को, खतरे की गंभीरता देखते हुए, स्थिति सुधारने की बेचैनी हो रही थी,
सितंबर में उसने जापान से संधि के बाद, अक्टूबर में नागरिक अधिकारों, और डूमा नाम
से विधायिका के वायदों के साथ एक घोषणा पत्र जारी किया, जिसे अक्टूबर घोषणापत्र
के नाम से जाना जाता है। इन रिययतों ने ज़ार विरोधी ताकतों को विखंडित कर
दिया। नरमपंथी ग्रुप, खासकर मध्यवर्गीय उदारवादी, वायदा किए सुधारों से संतुष्ट हो
क्रांति के समर्थक नहीं रहे। किसानों और मजदूरों की बगावतें जारी रहीं। मध्यवर्गीय
समर्थन से प्रफुल्ल जार को सेंट पीटर्सबर्ग सोवियत के नेताओं की
गिरफ्तारी की योजना को अंजाम देना शुरू कर दिया। 16 दिसंबर और बाद के बॉल्सेविक
विद्रोहों को बर्बरता से कुचल दिया गया। लेनिन ने अक्टूबर घोषणापत्र को
खाखले वायदों का पुलिंदा कहकर खारिज कर दिया। दिसंबर में रूस लौटने के बाद उन पर
वारंट था लेकिन वे गिरफ्तारी से बचते रहे। वे फिनलैंड चले गए जो उस समय राजनैतिक
शरणार्थियों का पनाहगाह था। 1906 तक विद्रोह ठंढा पड़ गया और सोसल डेमोक्रेटों की
टौथीनकांग्रेस स्टॉकहोम में हुई, जहां मेनसेविक और बॉल्सेविकों के मतभेदों को दूर
करने की कोशिस की गयी। पीटर्सबर्ग
वापस आकर क्रांति की सनमर्थक एक कुलीन धनी महिला के प्रांगण में 3000 के आसपास की
एक सभा को संबोधित किया। जुलाई में ज़ार ने पहली डूमा को भंग कर दिया। विद्रोह की
नई लहर उठने लगी, लगा क्रांति अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचेगा। ब़लसेविकों ने आम
हड़ताल और कर नाअदायगी का आह्वान किया। लेकिन 1905 के हिंसक दमन की भयावह यादों के
चलते लोगों में उत्सुकता न जग सकी। दूसरी डूमा भी भंग करने के बाद तीसरी डूमा को
चलने दिया और 1907-12 के दौरान इसके कई सत्र चले। सुधारों के चलते धनिक वर्ग और
जार में नजदीकी बढ़ी। क्रांति निकट संभावनाएं धुंध पड़ गयीं। लेनिन ने कहा, “यह
प्रतिक्रियावाद की शुरुआत जो कम-से-कम 20 साल रहेगा अगर इस बीच युद्ध न छिड़ गया।
इसीलिए हम सबको बाहर जाकर विदेशी धरती से काम करना चाहिए।” लंदन में हुई सोसल
डेमोक्रेटिक पार्टी की पांचवी कांग्रेस में मेनसेविकों का वर्चस्व रहा और लेनिन की
की रणनीतियों की कटु आलोचना हुई। लेनिन फिनलैंड होते हुए पश्चिमी यूरोप चले गए और
10 साल बाद ऩवंबर क्रांति के समय स्वदेश लौटे और दुनिया को हिला देने वाले 10
सदिनों की पहली सफल सर्वहारा क्रांति का नेतृत्व किया। जनांदोलनों और हड़तालों के
दौर के बाद सोसलिस्ट पार्टी ऑफ रसिया ने गुप्त संगठन बनाकर आतंकवादी सरकारी
अधिकारियों और कुलीनों की हत्या से आतंक फैलाकर क्रांति करना चाहती थी, लेनिन
जानते थे कि जनता की भागीदारी के बिना क्रांति नहीं हो सकती। लेनिन की बात सही
निकली नई क्रांतिकारी परिस्थितियां युद्ध से ही बनीं। जैसा कि ऊपर जिक्र है, दूसरे
इंटरनेसनल की ज्यादातर देशों की पार्टियां इंटरनेसनल से विश्वासघात कर अपने
अपने देशों के युद्धोंमादी अभियान में शरीक हो गए, लेकिन सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी
के बॉलसेविक और मेनस्विक, दोनों धड़े युद्धविरोधी निष्टा पर अड़े रहे और
युद्धकालीन संकट का इस्तेमाल कर वर्गसंघर्ष की तैयारी में जुट गए जिसका परिणाम थीं
1917 की मार्च और नवंबर की क्रांतियां, जिसने दुनिया का राजनैतिक समीकरण ही बदल
दिया।
जैसा कि
ऊपर शुरू में बताया गया है, 1914 में वस्तुतः और 1916 में विधिवत, दूसरा इंटरनेसनल
यूरोपीय घटक पार्टियों के विश्वासघात से बिखर गया। सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी
भूमिगत थी और इसके ज्यादातर महत्वपूर्ण नेता भागकर विदेशों में रह कर प्रचार कार्य
कर रहे थे। युद्ध के दौरान पार्टी का प्रभाव बढ़ता रहा। अर्थव्यवस्था के हर
क्षेत्र में सोवियत (कौंसिल) – सैनिक सोवियत, फैक्ट्री सोवियत, किसान सोवियत ... –
बनते और मजबूत होते रहे, ट्रेड यूनियनें भी ताकत हासिल करती रहीं। 1905 की क्रांति
में गठित हथियारबंद मजदूरों के दस्ते, रेड गार्ड्स 1917 की मार्च क्रांति
में फिर सक्रिय हो गए और सड़कों तथा क्रांति के हर संकट में हाजिर हो जाते थे।
ज़ारशाही के पतन के बाद बनी अंतरिम सरकार के हथियार डालने का आदेश मानने से इनने
इंकार कर दिया तथा रेड गार्ड की
बुनियाद पर ही नवंबर क्रांति की लाल सेना का गठन हुआ। 1917 की क्रांतियों;
क्रांति के उपरांत आर्थिक तथा राजनैतिक विकास के वैकल्पिक ढांचों के निर्माण की
प्रक्रिया, तीसरे (कम्यनिस्ट) इंटरनेसनल की स्थापना तथा अंतर्राष्ट्रीय
रजनौतिक पटल पर उथल-पुथल तथा भविष्य की क्रांतियों के लिए प्रेरणा तथा एक
आर्थिक-सामरिक महाशक्ति के रूप में सोवियत संघ के उदय की चर्चा, इस श्रृंखला के
अगले और अंतिम लेख में की जाएगी।
ईश मिश्र
17 बी
विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली 110007