Rakesh Jha कभी रहा होगा मामला 98-38 का अब बस 98-96 का है। वैसे परीक्षा के अंक किसी के ज्ञान और सामाजिक सरोकार के द्योतक नहीं होते नहीं तो इतने पकड़े गए आईयस-आईपीयस-सेना के अधिकारी भ्रष्टाचार और कदाचार के मुदमें नहीं झेल रहे होते, जो नहीं पकड़े गए उनकी बात अलग है। यदि ऐसा होता तो पीपी पांडे और बंजारा जैसे आईपीयस संवैधानिक जिम्मेदारी निभाते हुए दंगे रोकने के बजाय, शासकों के प्रति निजी वफादारी में दंगे और फर्जी मुठभेड़ न करवाते। तमाम पढ़े लिखे लंपट नफरत फैलाकर मुल्क तोडंने की कोशिस न कर रहे होते। साइंस का विद्यार्थी परीक्षा में नंबर के लिए हनुमान का प्रसाद लेने न जाता। खैर, 2014 में अपने कॉलेज मे मैं विभागाध्यक्ष था और 96.5-94.5-92.5 (जनरल-ओबीसी-यससी और यसटी) कट-ऑफ पर पहली ही लिस्टमें सभी कैटेगरी में 2-2 गुना से ज्यादा ऐडमिसन हो गए, बहुत से आरक्षित कैटगरी वाले जनरल में भी। अभी क्या हो रहा है कि हमलोगों के घरों के बच्चे आरक्षणृआरक्षण चिल्लाते हुए पढ़ना-लिखना छोड़कर लंपटता करते हैं तथा हमलोगों के घरों की लड़कियां और दलित लड़के-लड़कियां नए नए अवसर से वंचना की यादों को धूमिल करने के प्रयास में नगन से मेहनत करते हैं। मैं मई में गांव गया था। चाय के अड्डे पर आरक्षण का रोना रोया जा रहा था। मेरे गांव में दो इंजीनियर हैं। दोनों ही हमारे सहपाठी जयराम (जम्मू) के बेटे। एक ने आईआईटी से पढ़ाई की। जयराम अकेला दलित है हमारे समकालीनों में जिसने प्राइमरी तो पास ही किया, मिडिल तक भी पढ़ाई की। मैंने उन दिग्भ्रमित युवाओं से पूछा कि चलो आरक्षण से एक लड़का आईआईटी में चला गया कोई बिना आरक्षण वाला किसी रीजनल कॉलेज तक क्यों नहीं पहुंचा? और कहा कि बच्चों 15 फीसदी के लिए 51 फीसदी अनारक्षण है ही और आरक्षण का रोना रोने की बजाय पढ़ें-लिखें। लेकिन लंबे समय का दुराग्रह एक भाषण से खत्म हो जाता तो क्या बात थी?
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