खास संदर्भ में ही मर्क्सवाद लागू होता है। माटी पर न शर्म आना चाहिए न ही गर्व करने की बात है, एक वस्तुनिष्ठ समीक्षा का साहस होना चाहिए। न माटी की न भाषा की कोई समरूप संस्कृति होती है बल्कि संस्कृतियां होती हैं, नहीं तो मार्क्स और हिटलर की एक ही संस्कृति होते! इस पर विस्तार से लिखूंगा। वैसे शर्म एक क्रांतिकारी एहसास है। किसी की सांस्कृतिक चेतना पर माटी के अलावा तमाम कारकों का असर होता है, नहीं तो सहाब्बुद्दीन और चंद्रशेखर दोनों एक ही माटी, एक ही भाषा के थे। चलो इस पर फिर विस्तार से लिखूंगा, एक अति विलंब से लंबित काम कर लूं। मेरा गांव भोजपुरी-अवधी बोलता है और नदी उस पार का पड़ोसी गांव अवधी-भोजपुरी। पूर्वी उ.प्र. की मई-जून की 2 यात्राओं में मैंने पाया कि आजकल क्षेत्र में लंपटता की संस्कृति का वर्चस्व है। कारणों की समीक्षा की जा सकती है। लड़क पर 90% लोग भगवा गमझे में बकैती करते दिखते हैं. भगवा गमछे के साथ मोटर साइकिल की प्लेट पर रजिस्ट्रेसन नंबर की बजाय जय बजरंग बली.... । 10 लंपट किसी शरीफ आदमी को घेर कर तंग करेंगे और मजाक बनाएंगे और 20 बुजुर्ग मजा लेकर तमाशा देखेंगे। इसके कारणों की समीक्षा होनी चाहिए, लेकिन वस्तु स्थिति यही है, कुछ निष्ठा से और कुछ भय से लंपटता करते हैं।
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