चेतना संवाद एक फेसबुक ग्रुप है, एक युवा साथी
प्रांशु कुछ नवजवानों को क्या करना चाहिए से जुड़े ये सवाल पूछे,
1. क्या वो किताबों में अनन्तकालीन कैद रहे। 2. कौन सी पार्टी जॉइन करें। 3. क्या बिना पार्टी के व्यक्तिगत बौद्धिकता सही है। 4. वो पत्रिकाओ में लिखकर एक लेखक बन जाये। 5. या संघर्षों में कूद पड़े। 6. या इंतज़ार करें कि कोई लेनिन आएंगे क्रांति का स्वरूप बताने।
मैं आज दिन भर इन्ही सवालों का जवाब देता रहा और बीच में आए कुछ आक्षेपों का। उन्हें यहां एक साथ पोस्ट कर रहा हूं।
पहले सवाल का जवाब:साफ है मार्क्स जिंदगी भर पढ़ते-लिखते रहे लेकिन कभी किताबों में कैद नहीं हुए। किताबों के पढ़कर, पढ़े पर सवाल कर, उनपर चिंतन मनन कर, समाज को समझने और बदलने का ज्ञान हासिल करना चाहिए और उन्हें ऐतिहासिक परिस्थितियों के हिसाब से समाज की सेवा में लगाना चाहिए। आर्काइव्स और लाइब्रेरी में सर खपाकर मार्क्स ने पूंजीवादी राजनैतिक अर्थशास्त्र के गतिविज्ञान के नियमों का आविष्कार किया। ऐतिहासिक और द्वद्वात्मक भौतिकवाद के नियमों का अन्वेषण किया। क्रांतिकारी सिर्फ अपनी पीढ़ी के लिए नहीं लिखता अपितु भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी। "जिसका भी अस्हतित्रव है अंत निश्चित है" पूंजीवाद अपवाद नहीं है। रचना समकालिक होती है, महान रचनाएं सर्वकालिक बन जाती हैं। जैसा मैं पहले लिख चुका हूं और आप सब जानते हैं कि मार्क्स ने अपने जीवनकाल की दोनों (1848 और 1871) क्रांतियों में सिद्दत से शिरकत की। मार्क्स पर किताबी कीड़ा का आरोप लगाने वालों को मैंने समाजवाद पर 'समयांतर' में लेखमाला के चौथे खंड में विस्तृत जवाब दिया है। किताबों से ज्ञान प्राप्त ही नहीं करना है, समाज की सेवा में उसका उपयोग करना है।
(इस पर एक ज्ञानी ने छद्म वाम
पंथी सुविधाजीवी, करनी-कथनी में फर्क, सक वर्गों के .. तथाकथित यह और
वह जैसे कई निराधार आक्षेप कर डाले, बीच में रुक कर उनका जवाब)
गोल-मटोल भाषा और संघियों की तरह
बिना परिभाषा के 'तथा कथित', 'शासक वर्ग की तरह सुविधाभोगी ... अरे भाई तथाकथित कोई है तो केोई
असली होगा, वह असल क्या है? मैं सभी साथियों, विद्यार्थियों
तथा लंपटों और लफ्फाजों को भी बुद्ध, मार्क्स, भगत सिंह के पढ़ने और वैचारिक
बुनियाद पुख्ता करने का संदेश ही संप्रेषित करता हूं। अगर आप भगत सिंह से जुड़े
हैं तो उनके विचारों को अपनी परिस्थितियों पर लागू करिए, तस्वीर पर फूल-माला चढ़ाकर या उनके नाम का शोर मचाकर किसी
क्रांतिकारी शहीद से नहीं जुड़ा जाता बल्कि ऐसा करना उनका अपमान है। किसी
क्रांतिकारी का सम्मान उसके संघर्षों को आगे बढ़ाने से होता है, उसके नाम की माला जपने से या किसी अनाम संसोधनवादी को गाली देने से
नहीं । एंगेल्स ने कहा कि मार्क्सवादी वह नहीं है जो उनके और मार्क्स के उद्धरण
दोहराता रहे बल्कि वह है जो किसी खास परिस्थिति में वही करे जो मार्क्स करते। 1918 में रोजा लक्जंबर्ग ने 'रूसी क्रांति' लेख में लेनिन और
उनके साथियों की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, उन्होंने उन मुश्किल हालात में, जो भी सर्वोत्तम संभव था किया साथ में आगाह भी किया था कि खास
हालात के कार्यक्रमों को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा की सार्वभौमिक नीति बनाना
आत्मघाती होगा। यदि सुविधाभोगी आदि गालियां मेरे
लिए हैं तो जो मुझसे मिले हैं जानते हैं कि मैं एक प्राकृतिक वातानुकूलित बांस की
झोपड़ी में, दिल्ली में दुर्लभ सुख-सुविधा में
रहता हूं। वैसे क्रांतिकारी को भी ढंग से
खाने-पहनने का अधिकार है। मार्क्स के सिगार की आदत का भी उनके समकालीन कई चिरकुट इसी इंदाज में मजाक उड़ाने की कोशिस
करते थे। 18 साल की उम्र में जब से, रूपक में कहें तो, दीवारों पर मानव
मुक्ति के नारे लिखना शुरू करें सोचे-समझे निर्णय के तहत सुख-सुविधाओं का मोह जीवन
भर के लिए त्याग दिया। 1987 में दुर्गा भाभी ने कहा था कि यह मत
पूछना कि क्रातिकारी क्या खाते-पहनते थे? क्रांतिकारी भी इंसान होता है, उसे भी ढंग से खाना-पहनना अच्छा लगता है। साथियों अन्यथा न लें, मेरे पास बहुत लिखना बकाया है, सारा बकाया तो पता नहीं पूरा होगा कि नहीं, लेकिन मैं फेसबुक पर इस तरह की गतिविधियों में सामाजिक चेतना के
जनवादीकरण की दिशा में योगदान के रूप में समय निवेश करता हूं। कई बार दुविधा होती
है कि समय निवेश समय नष्ट करना तो नहीं हो रहा है। एक मार्क्सवादी साफ साफ बात
करता है, क्रांतिकारियों के नाम रटने की
लफ्फाजी नहीं। लंपट सर्वहारा की ही तरह लंपट बौद्धिक भी प्रतिकारी भूमिका निभाते
हैं। अब वास्तविक दुनिया की जिम्मेदारियों में उलझूं। आइए इसे विमर्श का एक सार्थक
मंच बनाएं, क्रांति की हवाबाजी का मंच बनने से
बचाएं। लाल सलाम। सुबह सुबह उठते ही फेसबुक नहीं खोलना चाहिए। हा हा हा।
(तब तक किसी अन्य ज्ञानी ने मेरे
शिक्षक होने पर तंज कसते हुए 'लुडविग फॉयरबाक
ऐंड द यंड ऑफ क्लासिकल जर्मन फिलॉसफी से शिक्षक को शिक्षित करने का उद्धरण कॉपी
पेस्ट कर दिया, उसका भी जवाब देना पड़ा)
सही। कोई भी मार्क्सवादी शिक्षक इन
मूलभूत मार्क्सवादी संल्पनाओं को पढ़ा होता और जानता है। शिक्षक को सबसे अधिक परेशानी
उन बंददिमाग तोतों को पढ़ाने में होती है जो अपने को सर्वज्ञ समझते हैं, और थोथे ज्ञान पर अकड़ से अड़ जाते हैं। और आप मुझे सर्वज्ञ लगते
हैं बस बिना संगठन के राजसत्ता पर कब्जा करना बाकी है। अभी आप से नाउम्मीद नहीं
हुआ हूं। विद्रोही जज्बात क्रांति की शर्त होती है, क्रांति नहीं। भगत सिंह ने लिखा है, उस पर वैचारिक परिपक्वता की शान चढ़ानी पड़ती हैं। लेकिन किसी
सर्वज्ञ को इसकी जरूरत नहीं पड़ती। सुकरात ने कहा है जो अपने को सर्वज्ञ समझता है वह महा मूर्ख होता है। थोड़ा और धैर्य रखता हूं, जब लगने लगेगा कि आप में समय निवेश, समय नष्ट करना है तो आप की बोतों को किसी लंपट बौद्धिक का प्रलाप
समझ नजरअंदाज कर दूंगा। बाय बाय।
आपका दूसरा सवाल, किस पार्टी में शामिल हों? यदि ऐसी कोई पार्टी मेरी दृष्टि में होती तो मैं पिछले लगभग 30 साल से, संशोधनवाद के तीसरे चरण से बेपार्टी न रहता। मुझे जो भी जनवादी समूह (आइसा समेत) बुलाते हैं, सहर्ष चला जाता हूं क्योंकि ये बच्चे जहां भी मार्क्सवाद की
ट्रेनिंग लें., ऐतिहासिक जरूरत पर साथ होंगे। कम्युनिस्ट लीग बिखरने (1852) के बाद खास ऐतिहासिक कारणों से इंटरनेसनल (1864) के गठन तक मार्क्स, एंगेल्स किसी पार्टी में नहीं थे जब कि वे तमाम जगहों पर बारंबार
लिखते हैं कि क्रांति के लिए सर्वहारा को पार्टी में संगठित ही होना पड़ेगा।
इंटरनेसनल के गठन ने मार्क्स में उसे दुनिया के सर्वहारा संगठनों की धुरी बनाने की
आशा जगी थी। कहने का मतलब उन परिस्थियों में अगर सर्वहारा की क्रांतिकारी पार्टी
का गठन संभव होता तो वे लोग 19वी सदी में
क्रांति कर चुके होते। लेकिन मार्क्स ने यह भी लिखा है कि अपनी चुनी परिस्थितियों
में नहीं, विरासत में मिली परिस्थियों में
इंसान अपना इतिहास बनाता है।
आपकी तीसरे सवाल के पहले आपके रास्ता
दिखाने वाले बाद के कमेंट पर बात की जाए। साथी रास्ते की पहचान जरूरी नहीं है उम्र
के चलते सही हो, हम सबको मिलकर खोजना होगा। मैं अपनी पहली क्लास में ही कहता हूं कि यहां कोई
ज्ञानी नहीं है, आइए सहकारी प्रयास से ज्ञान की खोज
करें क्योंकि अंतिम सत्य की तरह अंतिम ज्ञान भी नहीं होता, ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है। हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है, तभी हम पाषाण युग से साइबर युग तक पहुंचे हैं। शिक्षक का काम छात्र
को यह याद दिलाते रहने का है। यदि 25% शिक्षक भी शिक्षक होने की महत्ता समझते तो क्रांति का पथ वैसे ही
प्रशस्त हो जाता लेकिन ज्यादातर अभागे हैं, नौकरी करते हैं। शिक्षक को प्रवचन से नहीं, मिशाल से पढ़ाना पड़ता है। यही बात मां-बाप पर भी लागू होती है।
शिक्षक का काम प्रकाश दिखाना है, छात्रों के
मष्तिष्क चक्षु अपना गंतव्य खोज लेंगे। लेकिन हम उन्हें तोता बनाते हैं और पूरी
कोशिस करते हैं उनके ज्ञान चक्षु खुलें ही नहीं, फिर भी विद्रोही दिमाग विद्रोह कर ही देते हैं।
अब आपके तीसरे सवाल
पर आता हूं. बिना पार्टी की बौद्धिकता? बिना
संगठन के बौद्धिकता? बेहतर सवाल होता। ऐतिहासिक कारणों से मार्क्स, एंगेल्स 1852-64 और
फिर फिर इंटरनेसनल के बिखराव के बाद से मार्क्स आजीवन और एंगेल्स 1889 में दूसरे इंटरनेसनल तक बिना किसी पार्टी के थे
और लगभग विशुद्ध बौद्धिकता कर रहे थे लेकिन वह बौद्धिकता अपने आप में बहुत बड़ी
क्रांतिकारिता थी। मैं कई यमएल पार्टियों के नेतृत्व के संपर्क में हूं, उनके कार्यक्रमों में भी जाता हूं हमलोग साझा
कार्यक्रम भी करते हैं लेकिन कुछ मूलभूत सैद्धांतिक मतभेदों के चलते और कुछ
मतभेदों पर पार्टियों की बहस पर इंकार के चलते 1988 से
किसी पार्टी में नहीं हूं। अभी आता हूं,. माटी
के लिए कुछ भोजन तैयार करके।
पार्टी की बात पर वापस आते हुए, मार्क्स, एंगेल्स ने लिखा है कि वर्ग संघर्ष निरंतर प्रक्रिया है औक कम्युनिस्ट पार्टियों का इतिहास मार्क्स की कम्युनिस्ट लीग से भी शुरू करें तो भी लगभग 180 साल पुराना है, यानि वर्ग संघर्ष पर कम्युनिस्ट पार्टी का एकाधिकार नहीं है। वर्चस्व के कई स्तर हैं और प्रतिरोध के भी । अन्याय के खिलाफ सारे स्त्री, आदिवासी, किसान, दलित आंदोलन व्यापक रूप से वर्गसंघर्ष के हिस्से हैं।
हम फर्स्ट डेकेड्स ऑफ जेयनयूआइट्स का एक समूह है जो हर 2 साल बाद मिलते हैं। जेयनयू मार्च में भाग लेने प्रो पंकज मोहन दक्षिण कोरिया से आये थे और टिबरीवाल अमरीका से। हम लोग यही विमर्श कर रहे हैं कि 15000 लोगों के मार्च में पार्टी से संबद्ध मुश्किल से हजार लोग रहे होंगे लेकिन बाकी 14000 की प्रतिबद्धता 100 से कम नहीं थी लेकिन ये लोग संकट में ही बाहर आते हैं, इन्हें कैसे समन्वित किया जाए।
1983 में जेयनयू में एक लंबा आंदोलन हुआ था, पुलिस कार्रवाई हुई सैकड़ों लड़के-लड़कियां महीने के आस-पास तिहाड़ में रहे। विश्वविद्यालय अनिश्चित काल के लिए बंद कर दिया गया और 1983-84 को जीरो यीयर घोषित कर दिया गया। मैं एक क्आांतिकारी छात्ररसंगठन, डीयसयफ का महा सचिव था। आप किसी से नहीं मिलेंगे जिसने 1983 में जेयनयू में प्रवेश लिया हो। बहुत लोगों को शोकॉज़ नोटिस मिले। मेरा भाई जेयनयू और बहन वनस्थली में पढ़ती थी। दोनों का आर्थिक अभिभावक मैं ही था। मेरी थेसिस पूरी होने में 6-7 महीने की देरी थी। सुझे यूजीसी की सीनियर फेलोशिप मिल रही थी और एक स्कूल में गणित पढ़ाता था। रस्टीकेसन और न रस्टीकेसन में एक 2 लाइन के माफीनामे का फासला था। बहुतों ने फासला तय कर लिया कुछ नहीं कर पाए। मुझे भी समझाया गया कि लोग जिस तरह डीमॉरलाइज्ड हैं, तुम्हारे माफी न मांगने से देश क्या जेयनयू में भी कोई क्रांति नहीं आ जाएगी, मैं भी जानता था। लेकिन माफी का मतलब आंदोलन को खारिज करना थान जिसमें भागीदारी का फक्र है। कुल माफी न मांगने वाले लगभग 20 लोग थे, सब किसी-न-किसी क्रांतिकारी वाम धारा से जुड़े हुए। सभी बड़े संगठन -- यसयफआई-एआईयसयफ फ्रीथिंकर्स -- ने गुपचुप समझौता कर लिया था। 3 लोग 3 साल के लिए बाकी 2 साल के लिए रस्टीकेट कर दिए गए। मैंने अपने जवाब में वीसी को काउंटर शो-कॉज ईसू कर दिया कि इस शिक्षा के दुर्लभ केंद्र को बरबाद करने के लिए जनता उनके खिलाफ क्यों न कार्रवाई करे? जाहिर मैं 3 साला सूची में था। हम रह सकते थे लेकिन सर झुका कर सर उठाकर नहीं। सिर उठा के जीने के दुस्साहस की कोई कीमत कम होती है।
11988 में मार्क्स को दुबारा पढ़ना शुरू किया और बहुत सोचने के बाद मुझे कम्युनिस्ट पार्टी नहीं कम्युनिस्ट पार्टियों से कुछ मूलभूत सैद्धांतिक मतभेद हुए। मुझे और मेरी तरह बहुत से लोगों को लगता है कि पार्टी लाइन एक मार्क्सवाद विरोधी अवधारणा है और सहभागी जनतंत्र का लेनिन का जनतांत्रिक केंद्रीयता का सिद्धांत सब पार्टियों में व्यवहार में अधिनायकवादी केंद्रीयता में बदल गया है। इनसे हमारा मित्रतापूर्ण अंतरविरोध है।
जी बिना पार्टी के क्रांतिकारी बौद्धिकता संभव है, मार्क्स, एंगेल्स इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। लेकिन वे सदा संगठन बनाने के प्रयास में रहे। संगठन के बिना क्रांतिकारी बौद्धिकता संभव है लेकिन क्रांतिकारी आंदोलनों का यानि बदलाव का हिस्सा बनना नहीं। 1992 मे हम कुछ दलछुट और कुछ बेदल मार्क्सवादियों ने महसूस किया कि किसी पार्टी में हो नहीं सकते, नई पार्टी बनाने की औकात नहीं थी तथा संगठन के बिना कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। हमने एक मानवाधिकार संगठन 'जनहस्तक्षेप' का गठन किया। हम आंदोलन की पहली पार्टी नहीं हैं, दूसरी, औकात होती तो हम पहली पार्टी बनते। हम आंदोलन करते नहीं आंदोलनों की मदद करते हैं। दादरी, कांधला, मुजफ्परनगर, कैमूर, काश्मीर .... पर हमारी रिपोर्ट्स सैकड़ों वेब और प्रिंट मीडिया ने कैरी किया। दादरी की हमारी रिपोर्ट सबने क्रेडिट देके छापा, टाइम्स ऑफ इंडिया ने बिना क्रेडिट के। हम तत्कालीन सरोकार के मुद्दों पर कार्यक्रम करते रहते हैं। 20 अगस्त को गांधी पीस फाउंडेसन में कश्मीर पर हम मीटिंग आयोजित कर रहे हैं। जो साथी दिल्ली में हैं, आमंत्रित हैं। हम जितना कर पा रहे हैं, संतुष्ट नहीं है, लगातार औकात बढ़ाने की को शिस में हैं। तीन सवालों के जवाब पूरे हुए। प्रतिप्रश्न का स्वागत है।
चौथा सवाल क्या पत्र पत्रिकाओं में लिखकर लेखक बन जाए? लेखक बनने और क्रांतिकारी होने में कोई अंतरविरोध नहीं है। फर्स्ट इंटरनेसनल के सम्मेलन की रिपोर्ट में बुर्जुआ पत्रकारों ने पत्रकार मार्क्स लिखा था। जितने भी बड़े क्रांतिकारी हुए हैं सब लेखक थे। मार्क्स का कुछ खर्चा न्यूय़ॉर्क ट्रिब्यून में उनके लेखों से चलता था। इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है सामाजिक चेतना का जनवादीकरण, किन्ही माध्यमों से हम अपनी बात ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुंचा सकें।
पांचवां सवाल या संघर्षों में कूद पड़ें? किन संघर्षो ? चौथे-पांचवे सवाल में भी द्वंद्व नहीं है। भगत सिंह से सहमत हूं कि क्रांतिकारियों का पहला काम है पढ़-लिख; विचार-विमर्श से सैद्धांतिक मजबूती हासिल करना और जब भी संघर्ष को जरूरत हो तन-मन से कूद पड़ना।
छठा सवाल, क्या किसी लेनिन का इंतजार करें? साथी लेनिन ने 1896 में दूसरा इंटरनेसनल ज्वाइन किया। नवंबर 1917 तक रूसी राजनीति में लेनिन की वही हैसियत थी जो प्लेखानोव, बकूनिन, ट्रॉट्स्की आदि की। लेनिन ने एक सच्चे मार्क्सवादी की तरह मार्च 1917 की क्रांतिकारी परिस्थिति का सही आंकलन किया और अंतरिम सरकार की बदनीयती और युद्ध की विभीषिका के असंतोष को बॉसेविक ग्रुप के पीछे लामबंद करने में सफल रहे। फिर भी युद्ध की बदहाली में सैनिक विद्रोह कर पाला न बदलते तो शायद राजसत्ता पर अधिकार थोड़ा और मुश्किल होता। ऐतिहासिक स्थितियां जब बनेंगी और सामाजिक चेतना का पर्याप्त जनवादीकरण हो जाएगा अपने आप कोई लेनिन पैदा होगा।
आइए थोड़ा विषय बदलते हैं। सुकरात प्लेटो की रिपब्लिक का प्रोटोगॉनिस्ट और सूत्रधार दोनों हैं। वह पूछते हैं न्याय क्या है? सब जवाबों को वे तर्कों से खारिज कर देते हैं। एक पात्र थ्रेसीमाकस तैश में आकर पूछता है तुम्ही बताओ न्याय क्या है? सुकरात ने कहा मुझे नहीं मालुम। आओ मिलकर सोचते हैं न्याय क्या हो सकता है? क्या करना चाहिए? के जवाब में मेरा भी वही जवाब है जो सुकरात का था।
करना क्या है? लेनिन ने इसी शीर्षक (What is to be done?) से 1905 में एक पुस्तिका लिखा था, नेट पर उपलब्ध है। बहुत पतली सी है। पहले 4 खंड रूस की तत्कालीन सामाजिक आर्थिक स्थिति और सामाजिक चेतना तथा विभिन्न संगठनों के जनाधार की समीक्षा है और पांचवा खंड एक राष्ट्रीय अखबार की जरूरत पर जोर देता है। 2017 का भारत 1905 के रूस से अलग है। इससे हम यह 1905 की लेनिन समीक्षा के टूल्स 2017 के भारत की समीक्षा में इस्तेमाल कर सकते हैं।
अभी तो बहुत कुछ है लेकिन और भी
बहुत कुछ करना है। मैं अपनी बात निष्कर्ष से शुरू करता हूं। 1, पूंजी का चरित्र इस मामले में भूमंडलीय है कि यह न तो श्रोत न ही
निवेश के मामले में भूकेंद्रित (राष्ट्रीय) है। पूंजी का दमन भूमंडलीय है इसलिए
प्रतिरोध भी भूमंडलीय होगा। 2. लेकिन भूमंडलीय
पूंजी शोषण 'राष्ट्रीय' मजदूर का करती है और राष्ट्रवाद की विचारधारा से शोषण केो सुरक्षित
करती है, इसलिए प्रतिरोध के एपीसेंटर भी
राष्ट्रीय होंगे। 3. मार्क्स ने कहा है और अब हम सब
जानते हैं कि क्रांतिकारी परिवर्तन में दो फैक्टर होते हैं -- ऑब्जेक्टिव और
सब्जेक्टिव। पूंजीवाद के संकट की गहनता और वर्गचेतना से लैस संगठित सर्हारा। 4. पूंजीवाद के संकट के गहराने के कई मौके आए और मौजूदा संकट 2007 से जारी है लेकिन सब्जेक्टिव फैक्टर नदारत है। ऐसे संकट में इतिहास
बताता है कि फासीवादस का उदय होता है। 5.. मार्क्स ने कहा है और हम सब सहमत हैं कि अपनी मुक्ति लड़ाई
सर्वहारा खुद लड़ेगा।
6. मार्क्स ने कहा है कि आर्थिक
परिस्थितियों ने गांव के लोगों को मजदूर बना दिया इसलिए पूंजी की बरख्त तो वे
परिभाषा से ही 'अपने आप में एक वर्ग' हैं लेकिन वे भीड़ भर रह जाते हैं तब तक जब तक वे साझे हितों के
आधार पर अपने को संगठित कर 'अपने लिए वर्ग' नहीं बनते। 7. मार्क्स ने कहा
है कि विकास के चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्तर होता है और सामाजिक चेतना के
जनवादी करण से वर्ग चेतना से लैस लोग परिस्थितियां बदल देते हैं
क्या करना है? सामाजिक चेतना का जनवादीकरण।
इस पर विमर्श होना चाहिए कि किस तरह
लोगों में वैज्ञानिक चेतना का प्रसार हो। जब भी संगठन बनाने की नौबत आएगी तो सबसे
पहले तो गहन शोध करना पड़ेगा पूंजी के गतिविज्ञान का राजनैतिक अर्थशास्त्र समझने
के लिए; एक घोषणापत्र लिखना पड़ेगा और संगठन
बनने की हालत में पूर्णकालिक प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ता। आज इतना ही, विमर्श जारी रहेगा।न बनने की हालत में पूर्णकालिक प्रतिबद्ध
कार्यकर्त्ता। आज इतना ही, विमर्श जारी रहेगा।
साथियों आज पूरे 12 घंटे मैंने इस पेज पर बिताया, कृपया राय दें और आलोचना करें, निराधार निजी आक्षेप नहीं। साथियों से आग्रह है मैंने जो बाते कही हैं, उन्ही की चीड़-फाड़ करें, वैसे तो मैं सफाई दे चुका हूं, मेरी करनी-कथनी या आरामतलबी पर नहीं, मैं प्रोफेसर ऐक्टिविस्ट नहीं, ऐक्टिविस्ट प्रोफेसर हूं। यदि ग्रुप में मेरे पूरे दिन के समय निवेश से कुछ फायदा हो तो धन्य समझूंगा।
यह एक बानगी में लिखे गये फेसबुक कमेंट है, पूरी विषयवस्तु पर एक गंभीर लेख लिखने के लिए कम-से-कम 15 दिन का गहन शोध और दिन सोचने-लिखने के लिए चाहिए। यह चाय-खाना-नहाना और माटी के साथ खेलने के समय मिलाकर 10 घंटे में अलग-अलग लिखे कमेंट हैं। मैं उन स्टूडेंटस को ज्यादा प्यार से याद करता हूं जिन्होंने असहमति या खंडन वाले सवाल पूछे। असहमति के लिए दिमाग लगाना पड़ता है, निजी आक्षेप से विषयांतर में समय नहीं लगाना पड़ता है। निजा आक्षेपों का विषयांतर लेख की लय तोड़ देता है।
जितेंद्र जी माफ
कीजिएगा, मैं साधारण इंसान हूं, सबसे संवाद करने में सक्षम नहीं हूं और किसी से संवाद से हटने की छूट के निवेदन पर आप को इतना
क्रोध आ गया मॉफी चाहता हूं। आप इतने वरिष्ठ और परिपक्व क्रांतिकारी हैं, साधारण गालियां आपको शोभा नहीं देती, फिर भी शिरोधार्य। मेरा सिर्फ यही आग्रह है कि
फैसलाकुन आक्षेपों की बजाय, मेरे दोगलेपन, तथा
कथित, या छद्मता के बावजूद मेैंने जो लिखा उसकी
चीड़फाड़ करते तो ज्यादा आनंद आता। एक छद्म और एक असली क्रांतिकारी के बीच बहस
रोचक होती।
No comments:
Post a Comment