Jagadishwar Chaturvedi जी याद है, आप यसयफआई के सदर थे, उसी के आसपास या बाद आप जेयनयूयसयू अध्यक्ष के दो में से एक चुनाव जीते भी थे। जो हारे थे वह तबतक मौजूद हिदीभाषियों के प्रति कैंपस का पूर्वाग्रह। आपके प्रतिद्वंदी का तो अब नाम भी नहीं याद है। साथी कई बातें मैं यह सोचकर नहीं कहता कि पता नहीं हम उस समय को निष्पक्ष परिप्रेक्ष्य से देख पाएंगे कि नहीं, नहीं तो अपना-अपना औचित्य साबित करने की बहस में जुट जाएं तो सीखेंगे तो कुछ नहीं, सौहार्द ही घटेगा। 1989 वाले लेख में मैंने भरसक निष्पक्षता की कोशिस की है लेकिन मानव सब्जेक्टिव बीइंग है पूर्णतः निष्पक्षता शायद संभव नहीं है। हां किसी के इंगित करने पर भी इंगित तत्व की आत्म निरपेक्ष समीक्षा करनी ही चाहिए। मैं अभी के छात्र मित्रों को समझाता रहता हूं कि संगठन साधन है साध्य नहीं, उसी तरह जैसे पैसा जीने का साधन है साध्य नहीं। यदि साधन ही साध्य बन गया तो समझो, लास्टैय है। लेकिन हम उस वक्त की सोचते हैं तो जेयनयू के वाम संगठनों की सांगठनिक कार्यशैली; गुटबाजी; चुनावी दाव-पेंच; सेक्टेरियनिज्म; तकनीकी तार्किकता; चुनावी लामबंदी में उस समय के एबीवीपी; यनयसयूआई और यसवाईयस आदि संगठनों से गुणात्मक भिन्न नहीं थी। यदि हम अपनी बेवकूफियों का मजाक उड़ाने का साहस कर पाएं और दर-बेवकूफियों पर शर्मिंदा होने का बड़प्पन (शर्म एक क्रांतिकारी अनुभूति है) तो हमारी यादों पर एक ईमानदार विमर्श का संकलन एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन सकता है। हम बच्चों को कहते हैं संगठन साध्य नहीं, साधन है, लेकिन ईमानदारी से सोचें तो हमारे लिए भी प्रकारांतर संगठन ही साध्य बन गया था, इसीलिए 1983 के दमन, समर्पण हताशा के साथ, जेयनयू की राजनीति के युग की समप्ति हुई। जो लोग औरों से सिर्फ माफी न मांगने का एक ही अधिक जुर्म किया था उनमें से न तो किसी ने, न उनके फिद्दी-फिद्दी से संगठनों ने आंदोलन की शुरुआत की (न ही उनकी औकात थी) लेकिन जब आंदोलन शुरू हो गया तो वे उसमें जी-जान से जुट गए। मार्क्स ने 18 मार्च, 1971 के पहले ही नेसनल गार्ड के कुछ नेताओं को संदेश में कि तब विद्रोह का सही समय नहीं था। लेकिन जब पेरिस की सर्वहारा ने विद्रोह कर ही दिया तो उसके साथ एकजुटता में जी-जान से जुट गए। मार्क्स 'सिविल वार इन फ्रांस' इतिहास की समीक्षा ही नहीं, एक सर्वकालिक इतिहास-दृष्टि की अनकरणीय मिसाल है। हार-जीत सही-गलत का नहीं तमाम ऐतिहासिक संयोगों का परिणाम है, संघर्ष की गुणवत्ता महत्वपूर्ण है। मॉफ करना यार सोचा था दस्तावेज पर खत्म कर दूंगा और विचार-विमर्श के बाद 1983 पर सब अपने अपने समीक्षात्मक अनुभव, विचार और मूल्यांकन, ऐतिहासिक, मनोवैज्ञानिक और विचारधारात्मक परिप्रेक्ष्य से शेयर करें। लेकिन मेरी ही तरह कलम भी कभी-कभी मनमाना हो जाता है। मैं अगर आंदोलन को निंदनीय मानता तो उसमें शिरकत के लिए मॉफी क्यों न मांगता? सबको कहता हूं कि गलती हो तो मॉफी मांग लेना चाहिए तो मैं क्यों अपवाद? शिक्षक को प्रवचन से नहीं मिशाल से पढ़ाना पड़ता है। कोई आवेश में या शहादत की चाह में, या चोरी-ऊपर से सीनाजोरी की बेहूदी इगो की संतुष्टि में मैं अपने घर-गांव से जेयनयू कैंपस की नागरिकता और आवास, यूजीसी फेलोशिप, 4-6 महीने दूर डिग्री नहीं दांव पर लगा दूंगा? मैं भी साधारण इंसान हूं, मुझमें भी प्रबल आत्म-संरक्षण भाव और बोध है। नोटिस मिलने और अंतिम दिन जवाब देने में काफी वक्त था। उन दिनों मैं एक स्कूल में पढ़ाता भी था। ऊपर से जैसा ऊपर बता चुका हूं उस वक्त एक एक भाई बहन का भी आर्थिक अभिभावक था। माफी न मांगने का फैसला लंबे दार्शनिक, वैचारिक आत्म-संवाद का परिणाम था। जिस दिन मान लूंगा कि मैं इतना बेवकूफ और अहंकारी हूं कि अपनी गलती के औचित्य साबित करने में इतनी चीजें दांव पर लगा दू तो आत्मग्लानि से आत्महत्या कर लूंगा। यह सारे नफा-नुक्सान की विवेकपूर्ण गणना और परिणाम की विभीषिका के और तत्पश्चात की समस्याओं के आकलन के बाद सोचा-समझा फैसला था। जिस दिन मुझे हॉस्टल से एविक्ट किया गया, मेरी बेटी 10 दिन की थी और मेरा मैरिड हॉस्टल में नंबर आने वाला था। बचपन में सब बहुत समझदार कहते थे, मैंने सोचा सब कहते हैं तो होऊंगा ही तबसे मैंने अपने को समझदार समझना बंद ही नहीं किया, जो इतना समझदार होकर मैं सिर्फ नाक के लिए ऐसा आत्मघाती कदम क्यों उठाता जो मुझे ही नहीं औरों को भी प्रभावित करे? इस तरह की घटनाएं जीवन का लय ही बदल देती हैं, मेरी बेटी आज तक ताने देती है कि उसे 4 साल गांव छोड़े रहा। मैं 1983 की एक तथ्यात्मक समीक्षा कभी लिखूंगा। जिन मित्रों के पास उस वक्त के पर्चे आदि हों तो उपलब्ध कराएं। कब लिखेंगे पता नहीं? और काम थे लेकिन मेरी ही तरह मेरा कलम भी कभी मनमानी पर उतर आता है. (07.08.2017)
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