@satya Narain Mishra जी, मैं तो आपको भक्त मजाक में कहा था लेकिन आपतो वाकई पक्के लगते हैं! एक छोटी सी पोस्ट भी नहीं पढ़ते और फैसलाकुन जवाबी सवाल करते हैं। ऊपर इस पोस्ट में कहां लिखा है कि इंदिरा या संजय गांधी ने आत्म हत्या की या उन्हें जनता ने दौड़ा-दौड़ा कर मार डाला। फिर से पढ़िए। हर तानाशाह की एक ही ढंग से मौत नहीं होती। मुसोलिनी को जनता ने दौड़ा-दौड़ा कर मार डाला था और हिटलर ने माद में छिप कर खुदकशी का थी। मेरे लिखे का मतलब यह है कि सत्ता के मद में तानाशाह आत्मघाती कदम उठाता है। आपातकाल के बाद संसद में 3-चौथाई बहुमत से घट कर संसद में इंदिरा गांधी के चारणों की संख्या कितनी हो गयी, खुद चुनाव हार गयीं। संजय की तनाशाही संविधानेतर थी सत्तासीन नहीं, वह नौबत आने के पहले ही, रहस्यमय हवाई दुर्घटना में चल बसे। राष्ट्रोंमाद, धर्मोंमाद के जरिए राजनैतिक लामबंदी पर हिंदुत्ववादियों का एकाधिकार नहीं है। दर-असल उनने तो अपनी धर्मोंमादी, आक्रामक छवि सुधारने केे के लिए गांधीवादी समाजवाद का शगूफा छोड़ दिया था, बिना बताए कि यह है क्या? हर तरह के फासीवादी परिभाषा से परहेज करते हैं। ऊपर जो मिशालें दी हैं वह ऐतिहासिक फासीवादी पार्टी के संदर्भ में ही नहीं, एक विरधारात्मक प्रवृत्ति के अर्थों में किया है। जैसे इंदिरा गांधी के बारे में आपके सवाल हैं वैसे ही कहेंगे कि नैपोलियन के जमाने तक फासीवाद कहां था? दर-असल 1983 तक आते आते इंदिरा गांधी अपनी गिरती लोकप्रियता और पंजाब में अकाली प्रभाव को कमने के लिए, भिंडरवाले तैयार किया जो उनके लिए भस्मासुर साबित हुए जैसे मोदी जी अडवानी के लिए। इंदिरा गांधी ने इससे निपटने के लिए उन्होने राष्ट्रोंमादी लामबंदी का रास्ता अपनाया, स्वर्ण मंदीर पर हमला और उनकी हत्या और सिख जनसेहार और राजीव गांधी की ज्ञानी जी द्वारा हड़बड़ी में, सारे संसदीय परंपराओं को ताक पर रख कर, ताजपोशी, श्रीलंका में शांति-सेना (a contradiction in terms) और 1989 में हार तथा 1991 में दर्दनाक मौत अब इतिहास बन चुका है। 1984 में 'गांधीवादी समाजवादियों' को गलती का एहसास हुआ कि 36 साल से मुलमानों, ईसाइयों और कम्यिस्टों के खिलाफ नफरत वे फैला रहे थे और कांग्रेस को हजार-2 हजास सिखों की कुर्बानी से इतना बड़ा बहुमत मिल गया और राम जन्मभूमि के हुेकारों से वातावरण प्रदूषित हो गया। जगह जगह शिला पूजन शुरू हुए। कांग्रस के मुंह सांप्रदायिक लामबंदी का चस्का लग चुका था। गौर तलब है कि सिकों के नरसंहार के बाद राजीव गांधी ने खुले आम जानबूझ कर कहा था कि बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। यह भी गौरतलब है, जो उस समय के गवाह हैं मेरी बात तस्दीक करेंगे कि 1984-85 में हर सिख को वैसै ही संदेह की नजर से देखा जाता है जैसे आज मुसलमानों को। जैसे आज बहुत से मुसलमान शिनाख्त छिपाने के लिए आरक्षित रेल यात्रा नहीं करते उसी तरह कई सिखों अपने केश काट लिए और कई पगड़ी उतार कर साधुओं जैसी दाढ़ी करके रेल यात्रा करते थे। एक बार मेरे एक सहयात्री, एक बुजुर्ग सरदार जी, साधु भेष के बावजूद, कड़े के चलते 'पकड़ा गये', यह कहानी मैंने कहीं और लिखा है, छपने के पहले नहीं शेयर कर सकता। भाजपा का राम अभियान देख राजीव सरकार के कान खड़े हो गए, उन्होने मंदिर का ताला खोल दिया, मेरठ, मलियाना, हाशिमपुरा रचा लेकिन उनके पास महज सरकारी मशीनरा थी अडवानी गिरोह के पास स्वयंसेवकों की एतक अनशासित फौज भी था और लंबा अनुभव। उसके बाबरी, 2002, 2013 सब इताहास बन चुका है, अब तो बजरंगी फौज के साथ सरकारी मशीनरी भी है।
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