एक ग्रुप में विमर्श में एक कमेंट
गोल-मटोल भाषा और संघियों की तरह बिना परिभाषा के तथा कथित, शासक वर्ग की तरह सुविधाभोगी ... अरे भाई तथाकथित कोई है तो केोई असली होगा, वह असल क्या है? मैं सभी साथियों, विद्यार्थियों तथा लंपटों और लफ्फाजों को भी बुद्ध, मार्क्स, भगत सिंह के पढ़ने और वैचारिक बुनियाद पुख्ता करने का संदेश ही संप्रषित करता हूं। अगर आप भगत सिंह से जुड़े हैं तो उनके विचारों को अपनी परिस्थितियों पर लागू करिए, तस्वीर पर फूल-माला चढ़ाकर या उनके नाम का शोर मचाकर किसी क्रांतिकारी शहीद से नहीं जुड़ा जाता बल्कि ऐसा करना उनका अपमान है। किसी क्रांतिकारी का सम्मान उसके संघर्षों को आगे बढ़ाने से होता है, उसके नाम की माला जपने से या किसी अनाम संसोधनवादी को गाली देने से नहीं । एंगेल्स ने कहा कि मार्क्सवादी वह नहीं है जो उनके और मार्क्स के उद्धरण दोहराता रहे बल्कि वह है जो किसी खास परिस्थिति में वही करे जो मार्क्स करते। 1918 में रोजा लक्जंबर्ग ने 'रूसी क्रांति' लेख में लेनिन और उनके साथियों की फ्रशंसा करते हुए लिखा है कि, उन्होंने उन मुश्किल हालात में, जो भी सर्वोत्तम था किया साथ में आगाह भी किया था कि खास हालात के कार्होयक्रमों को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा की सार्वभौमिक नीति बनाना आत्मघाती होगा। यदि सुविधाभोगी आदि गालियां मेरे लिए हैं तो जो मुझसे मिले हैं जानते हैं कि मैं एक प्राकृतिक वातानुकूलित बांस की झोपड़ी में, दिल्ली में दुर्लभ सुख-सुविधा में रहता हूं। वैसे क्रांतिकारी को भी ढंग से खाने-पहनने का अधिकार है। मार्क्स के सिगार की आदत का भी उनके समकालीन कई चिरकुट इसी इंदाज में मजाक उड़ाने की कोशिस करते थे। 18 साल की उम्र में जब से, रूपक में कहें तो, दीवारों पर मानव मुक्ति के नारे लिखना शुरू करें सोचे-समझे निर्णय के तहत सुख-सुविधाओं का मोह जीवन भर के लिए त्याग दिया। 1987 में दुर्गा भाभी ने कहा था कि यह मत पूछना कि क्रातिकारी क्या खाते-पहनते थे? क्रांतिकारी भी इंसान होता है, उसे भी ढंग से खाना-पहनना अच्छा लगता है। साथियों अन्यथा न लें, मेरे पास बहुत लिखना बकाया है, सारा बकाया तो पता नहीं पूरा होगा कि नहीं, लेकिन मैं फेसबुक पर इस तरह की गतिविधियों में सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की दिशा में योगदान के रूप में समय निवेश करता हूं। कई बार दुविधा होती है कि समय निवेश समय नष्ट करना तो नहीं हो रहा है। एक मार्क्सवादी साफ साफ बात करता है, क्रांतिकारियों के नाम रटने की लफ्फाजी नहीं। लंपट सर्वहारा की ही तरह लंपट बौद्धिक भी प्रतिकारी भूमिका निभाते हैं। अब वास्तविक दुनिया की जिम्मेदारियों में उलझूं। आइए इसे विमर्श का एक सार्थक मंच बनाएं, क्रांति की हवाबाजी का मंच बनने से बचाएं। लाल सलाम। सुबह सुबह उठते ही फेसबुक नहीं खोलना चाहिए। हा हा हा।
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